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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय........{154} अलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और निर्माण-इन अठाईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ अयशः कीर्ति का बन्ध नही होता है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इस प्रथम अठाईस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त देवगति को बांधने वाला अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत होता है। देवगति सम्बन्धी एक अन्य अठाईस प्रकृति वाला बन्धस्थान है - देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ- इन दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति इन दोनों में से कोई एक और निर्माण नामकर्म-इन द्वितीय अठाईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ स्थिर, शुभ और यशः कीर्ति इन तीन युगलों के विकल्प से आठ ( दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८ ) भंग होते हैं। इस अठाईस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त देवगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति- इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । देवगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में यशः कीर्ति नामकर्म सम्बन्धी एक प्रकृति वाला बन्धस्थान है । एक प्रकृति वाले बन्ध स्थान के स्वामी वे संयत ही होते हैं, जो अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती संयत होते हैं, क्योंकि यशः कीर्ति को छोड़कर शेष सभी नामकर्म की प्रकृतियों का अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग में बन्ध-विच्छेद हो जाता है । यशः कीर्ति भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक ही बन्ध को प्राप्त होती है ।
गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । नीचगोत्र एक प्रकृतिवाला बन्धस्थान है । नीचगोत्र एक प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसमयग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। इससे आगे नीचगोत्र सम्भव नहीं है । उच्चगोत्र भी एक प्रकृति वाला बन्धस्थान है। उच्चगोत्र नामक एक प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं ।
अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियाँ हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इन पांचों प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इन पांचों अन्तराय प्रकृतियों वाले बन्धस्थान के स्वामी मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के संयत जीव होते हैं । षट्खण्डागम प्रथम खण्ड की आठवीं और नवीं चूलिकाओं में गुणस्थान विवेचन १८७
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षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की आठवीं चूलिका में सम्यक्त्व की सर्व प्रथम प्राप्ति किस प्रकार और किन्हें होती है, इसकी चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि जब जीव को सभी कर्मों की अन्तः कोडाकोडी परिमाण स्थिति रहती है, तब संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन मोहनीय कर्म का उपशमन करता हुआ पन्द्रह कर्मभूमियों में प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । इस प्रकार आठवीं चूलिका में मिथ्यादृष्टि जीव किस प्रकार सम्यक्त्व की और अभिमुख होता है इसका विवेचन है । षट्खण्डागम की जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की नवीं चूलिका में प्रथम मिथ्यादृष्टि नारकी, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, देव और मनुष्य किन स्थितियों में और किन कारणों से प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । सर्वप्रथम यह बताया गया है कि चारों ही गति के जीव पर्याप्त संज्ञी अवस्था में ही सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व
प्राप्त होते हैं । प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारणों की चर्चा करते हुए इसमें यह कहा गया है कि प्रथम तीन नारक के जीव जाति स्मरण ज्ञान के द्वारा अथवा धर्मोपदेश श्रवण के द्वारा वेदना से अभिभूत होकर औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते
१८७ षट्खण्डागम, पृ. ३११ से ३४४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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