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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा. तृतीय अध्याय.......{151} कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक और निर्माण नामकर्म-इन प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । यहाँ छः संस्थान, छ: संघयण, दो विहायोगतियाँ, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय और यशः कीर्ति-अयशः कीर्ति-इन परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों में से एक समय में यथासम्भव किसी एक-एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव होने से चार हजार छः सौ आठ (छः गुणित छः गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ४६०८) भंग होते हैं। प्रथम तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और उद्योत नामकर्म से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं । तिर्यंच सम्बन्धी द्वितीय बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाले है। पूर्व प्रथम तीस प्रकृति वाला बन्धस्थान में हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन दो प्रकृतियों का सद्भाव था, किन्तु इस द्वितीय बन्धस्थान में वे दोनों प्रकृतियों नहीं है, दोनों बन्धस्थानों में बस इतना भेद है । द्वितीय तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और उद्योत नामकर्म से युक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। पांच संस्थान, पांच संघयण तथा विहायोगति आदि सात युगलों के विकल्प से इसके तीन हजार दो सौ (पांच गुणित पांच गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित बराबर ३२००) भंग होते हैं। तिर्यंच सम्बन्धी तृतीय बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाला हैं। तृतीय बन्धस्थान में द्वीन्द्रियादि जाति नामकर्म स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति, इनके विकल्प से चौबीस (तीन दो गुणित दो गुणित दो गुणित बराबर २४) भंग होते हैं। तृतीय तीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी विकलेन्द्रियपर्याप्त और उद्योत नामकर्म से तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में से प्रथम उनतीस प्रकृति वाला बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थानों के समान है, परंतु विशेष यह है कि यहाँ उद्योत नामकर्म को छोड़कर शेष उनतीस प्रकृतियों का एक भाव में अवस्थान होता है। प्रथम उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी द्वितीय उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान प्रथम उनतीस प्रकृति वाले बन्ध स्थान के समान हैं। इन द्वितीय बन्धस्थान सम्बन्धी उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है। द्वितीय उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी तृतीय बन्धस्थान भी उद्योत नामकर्म को छोड़कर उनतीस प्रकृतिवाला ही हैं। इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है। तृतीय उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी विकलेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंच सम्बन्धी पांच बन्ध स्थानों में छब्बीस प्रकृति वाला भी एक बन्धस्थान हैं - तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस, कार्मण, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति प्रायोग्यानपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत-इन दोनों में से कोई एक, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ दोनों में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म-इन छब्बीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । आतप-उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति-अयशः कीर्ति-इन के विकल्प से सोलह (दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर १६ ) भंग होते हैं। छब्बीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति, बादर, पर्याप्त तथा आतप और उद्योत-इन दोनों में से किसी एक से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंचगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में यह प्रथम पच्चीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है - तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिआप्रयोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु उपघात, पराघात, उच्छ्वास, स्थावर, बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्त में कोई एक, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर में से कोई एक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ-इन दोनों में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म-इन प्रथम पच्चीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ बादर-सूक्ष्म, प्रत्येक-साधारण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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