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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{150} नौ प्रकृतिवाला पांचवाँ बन्धस्थान संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है । यहाँ संयत, प्रमत्तसंयत से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही समझना चाहिए। इससे आगे छः नौ कषायों का बन्ध नहीं है । मोहनीय कर्म के पंचम बन्धस्थान की नौ प्रकृतियों में से हास्य-रति, अरति-शोक, भय और जुगुप्सा को कम करने पर पांच प्रकृतिवाला छठा बन्धस्थान होता है। संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद-इन पांच प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता हैं। पांच प्रकृतिवाले षष्ठ बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त तक के संयत होते हैं। मोहनीय कर्म के षष्ठ बन्धस्थान की पांच प्रकृतियों में से पुरुषवेद को कम करने पर चार प्रकृतिवाला सप्तम बन्धस्थान होता है । संज्वलन चतुष्क रूप चारों प्रकृतियों को बांधनेवाले जीवों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । चार प्रकृति रूप सप्तम बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गु लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त के जीव होते हैं। मोहनीय कर्म के सप्तम बन्धस्थान की चार प्रकृतियों में से संज को कम करने पर तीन प्रकतिवाला अष्टम बन्धस्थान होता है। संज्ववलन त्रिक रूप मान आदि तीनों प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । तीन प्रकृति वाले अष्टम बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण संयत गुणस्थान तक होते हैं। मोहनीय कर्म सम्बन्धी अष्टम बन्धस्थान की तीन प्रकृतियों से संज्वलन मान को कम करने पर दो प्रकतिवाला नवाँ बन्धस्थान होता है । संज्वलन माया और लोभ-इन दो प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। दो प्रकृतिवाले नवें बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं। मोहनीय कर्म सम्बन्धी नवें बन्धस्थान की दो प्रकृतियों में से संज्वलन माया को कम करने पर एक प्रकृतिवाला दसवाँ बन्धस्थान होता है । संज्वलन लोभ को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । एक प्रकतिवाले दसवें बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं।
__आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । आयु कर्म की चार प्रकृतियों में नरकायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । एक प्रकृतिवाले नरकायु के बन्धवाला बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को होता है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्म के उदय के बिना नरकायु का बन्ध नहीं होता हैं। तिर्यंचायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । तिर्यंचाय के बन्धरूप एक प्रकतिवाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। मनुष्यायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । मनुष्यायु के बन्धरूप एक
बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। देवायु के बन्धरूप एक प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं। इससे आगे आयु कर्म का बन्ध नहीं होता है ।
नामकर्म के आठ बन्धस्थान होते हैं। ये ३१, ३०, २६, २८, २६, २५, २३ और १ प्रकृतिवाले बन्धस्थान हैं। नामकर्म के आठ बन्धस्थानों में अठाईस प्रकृतिवाला बन्धस्थान इस प्रकार है-नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, तैजसशरीर, कार्मणसंस्थान, हुडकसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण-इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधनेवाले का एक ही भाव में अवस्थान होता है । अट्ठाईस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त नरकगति के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती पर्याप्त नारक होते हैं। तिर्यंचगति नामकर्म के पांच बन्धस्थान हैं। तीस प्रकृतिवाला, उनतीस प्रकृति वाला, छत्तीस प्रकृति वाला, पचीस प्रकृति वाला और तेईस प्रकृति वाला-ये पांच
के तिर्यंचगति सम्बन्धी इन पांच बन्धस्थानों में प्रथम तीस प्रकति वाला बन्धस्थान यह है-तिर्यंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छः संस्थानों में से कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, छः संघयणों में से कोई एक, वर्ण, गंघ, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात उच्छ्वास, दोनों विहायोगति में से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर-इन दोनों में से
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