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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{149) बन्धस्थानों में से दूसरा बन्धस्थान स्त्यानगृद्धि त्रिक को छोड़कर शेष छः प्रकृतियों का समूह रूप द्वितीय बन्धस्थान बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। छः प्रकृतियों के द्वितीय बन्धस्थान के स्वामी सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीव है। यहाँ संयत पद से अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में से प्रथम भाग तक के संयत जानना चाहिए । दर्शनावरणीय कर्म के द्वितीय बन्धस्थान में से निद्रा और प्रचला को छोड़कर शेष चार प्रकृतियों का तृतीय बन्धस्थान बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इस चार प्रकृतियों रूप तृतीय बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में से द्वितीय भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक इन चारों प्रकृतियों का बन्ध होता है। वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनों प्रकृतियों को क्रमशः बांधनेवाले बन्धक जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। साता और असाता वेदनीय-ये दोनों प्रकृतियाँ परस्पर विरूद्ध होने से एक साथ नहीं बन्धती हैं । वे क्रम से विशुद्धि और संक्लेश के निमित्त से बन्ध को प्राप्त होती हैं, अतएव इन दोनों का बन्ध एक साथ नहीं होता है, परंतु यहाँ तो इनके एक संख्या में अवस्थित होने से इनका एक बन्धस्थान ही निर्दिष्ट किया गया है । वेदनीय कर्म का बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है। यहाँ संयत पद से सयोगीकेवली गुणस्थान तक ही ग्रहण करना है, आगे अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध सम्भव नहीं है। मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान हैं। बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकति रूप बन्धस्थान। बाईस का बन्धस्थान इस प्रकार है-मिथ्यात्व, अनन्तानबन्धी सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपंसकवेद-इन तीनों में से कोई एक वेद, हास्य और रति तथा अरति और शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगप्सा, इन बाईस प्रकृतियों के समूह रूप प्रथम बन्धस्वामी जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता हैं। बाईस प्रकृति का प्रथम बन्धस्थान मिथ्यात्व के उदययुक्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को छोड़कर मिथ्यात्व प्रकति का अन्यत्र बन्ध नहीं होता है । इस प्रथम बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं । प्रथम बन्धस्थान की बाईस प्रकतियों में से मिथ्यात्व और नपंसक वेद को छोड़कर इक्कीस प्रकृतियों का द्वितीय बन्धस्थान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि सोलह कषाय, स्त्रीवेद और पुरुषवेद-इन दोनों में से कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दो युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा-इन इक्कीस प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । दोनों वेद और हास्यादि दोनों युगलों के विकल्प से दो गुणित दो बराबर चार का एक भंग होता है । इक्कीस प्रकृतिवाले द्वितीय बन्धस्थान के स्वामी सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। अनन्तानबन्धी चतष्क और स्त्रीवेद का बन्ध दूसरे गणस्थान से आगे नहीं होता है। अतः मोहनीय कर्म सम्बन्धी द्वितीय बन्धस्थान की इक्कीस प्रकतियों में से अनन्तानबन्धी चतष्क और स्त्रीवेद को कम करने पर सत्रह प्रकतिवाला ततीय बन्धस्थान होता है । अप्रत्याख्यानीयादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय सा-इन सत्रह प्रकृतियों के बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । सत्रह प्रकृतिवाले तृतीय बन्धस्थान के स्वामी सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं । चौथे गुणस्थान से आगे अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का बन्ध नही होता हैं । मोहनीय कर्म की ततीय बन्धस्थान की सत्रह प्रकतियों में से अप्रत्याख्यानावरणीय चतष्क को कम कर देने पर तेरह प्रकतिवाला चतुर्थ बन्धस्थान होता है। प्रत्याख्यानीयादि आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक, भय और जुगुप्सा-इन तेरह प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान है । हास्यादि दोनों युगलों के विकल्प से दो भंग होते हैं। तेरह प्रकृतिवाले चतुर्थ बन्धस्थान के स्वामी संयतासंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं। पांचवें गणस्थान से आगे अप्रत्याख्यनीय चतुष्क का बन्ध सम्भव नहीं है । चतुर्थ बन्धस्थान की तेरह प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानीय चतुष्क को कम करने से नौ प्रकृतिवाला पंचम बन्धस्थान होता है । संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा-इन नौ प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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