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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{148}जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त अनुसार ही है । आहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का प्रवेश की अपेक्षा परिमाण पूर्वोक्त ही है। वे ही सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा इससे संख्यातगुणित है। आहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। आहारकों में उपर्युक्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । आहारकों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित है, आहारकों में असंख्यातसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित है। आहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से कहे गए के समान है। इसी प्रकार आहारकों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए। आहारकों में इन गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं, उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। अनाहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों से अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणित हैं । अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है। अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित
षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथमखण्ड की प्रथम एवं द्वितीय चूलिकाओं में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा'६
पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षखण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में आठ अनुयोग द्वारों के विषम अर्थात् दुर्बोध स्थलों के विशेष विवरण का नाम चूलिका है। यह जीवस्थान सम्बन्धी चूलिका नौ प्रकार की हैं। कौन से गुणस्थानवी जीव कितनी प्रकृतियों को बांधते हैं, ऐसा जिनमें बताया गया है, उन्हें प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका कहा गया है । प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक चूलिका में आठ कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्म प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता है अथवा क्रम से होता है, इसका स्पष्टीकरण इस द्वितीय स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में किया गया है । वह अर्थात् प्रकृति स्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है । यहाँ संयत शब्द से प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक जानना चाहिए, क्योंकि इनको छोड़कर अन्य कोई बन्धक नहीं है । यहाँ अयोगीकेवली गुणस्थान को ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि उन्हें बन्ध का अभाव होता है । ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियाँ हैं-आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः पर्यवज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियों का एक ही बन्ध स्थान है । इन पांचों प्रकृतियों का ज्ञानावरणीय का बन्ध एक परिणामविशेष से एक ही साथ होता है । वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीव को होता है। यहाँ संयत से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक संयत जीवों का ग्रहण करना है, क्योंकि इससे ऊपर गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध नहीं होता है।
दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थान है। नौ, छः और चार का प्रकृतिरूप बन्धस्थान है । दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थानों में निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलज्ञानावरणीय-इन नौ प्रकृतियों के समूहरूप से एक साथ बांधने वाला एक ही परिणाम रूप यह प्रथम बन्धस्थान है । वह नव प्रकृति रूप प्रथमबन्धस्थान मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीन १५६ षट्खण्डागम, पृ. २५६ से २६७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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