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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{194} स्पष्टरूप से चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों का रूपष्टरूप से उल्लेख किया है२२६ और यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीवों को चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणा स्थानों और चौदह गुणस्थानों में पूर्णतया श्रद्धा रखना चाहिए। इससे दो बात स्पष्ट हो जाती है कि शभचंद्र न केवल गणस्थान की अवधारणाओं से सपरिचित थे अपित मार्गणास्थान जीवस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी वे जानते थे । ज्ञानार्णव में समभाव के स्वरूप का चित्रण करते हुए उन्होंने उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो अवस्थाओं का चित्रण किया है जो गुणस्थानों से ही सम्बन्धित है।२२७ इसीप्रकार आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्टरूप से यह कहा है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सम्भव है । मात्र यही नहीं २५ वें सर्ग के ३८ और ३६वें श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान में आर्तध्यान के चारों ही भेद सम्भव होते हैं । किन्तु छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान को छोड़कर शेष तीन प्रकार ही सम्भव होते हैं।२२८ इसी प्रकार रौद्रध्यान की चर्चा में भी यह बताया गया है कि रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पांचवें देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव होता है ।२२६ इसी क्रम में आगे धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं ।२३० इसी प्रसंग में अन्य आचार्यों के मन्तव्यों के साथ यह भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि से लेकर देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत भी धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं।२३१ धर्मध्यान के अधिकारी उपर्युक्त चारों गुणस्थानों के जीव हैं । अतः उनके भेद के आधार पर धर्मध्यान का फल भिन्न-भिन्न कहा गया है । यद्यपि इन श्लोकों में स्पष्टरूप गुणस्थान या गुण शब्द का उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि यहाँ शुभचंद्र इन नामों से उन गुणस्थानों का ही उल्लेख कर रहे हैं । पुनः आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव के सर्ग ४१ में धर्मध्यान के फल की चर्चा करते हुए यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से असंख्यात-असंख्यातगुणा कर्मों का क्षय या उपशम करता है।२३२ आगे ४२ वें सर्ग में शुक्लध्यान के अधिकारी की चर्चा करते हुए यह कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम चरण और द्वितीय चरण के अधिकारी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होते हैं, जबकि शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण के अधिकारी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी होते हैं ।२३३ इसी सर्ग
२२६ चतुर्दशसमासेषु मार्गणासुः गुणेषु च ।।
ज्ञात्वा संसारिणो जीवाः श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिमः ।। ज्ञानार्णव सर्ग १ श्लोक २५ (शुभचंद्र, परमश्रुत प्रभावकमण्डल अगास, संस्करण पंचम २०३७) २२७ सारंगी सिंहशापं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसपालं प्रणयपरवशा कोकिकान्ता भुजंगम् ।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदाद जन्तवो त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २३ श्लोक नं.२६ २२८ अयथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमथ्यग्रिमक्षणे।
विद्धयसद्धयनमंतद्धि षड्गुणस्थान भूमिकाम् ।।३।। संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।।३।।
ज्ञानार्णव, सर्ग २५ श्लोक नं. ३८,३६ २२६ कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातफलांकितम् ।।
रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पच्च गुणभूमिकम् ।।३६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २६ श्लोक ३६ २३० मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ ।
अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतो यथायथम् ।।२५।। अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः ।
पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २८ श्लोक नं. २६, २६ २३१ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्य्यादि गुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।१२।।
ज्ञानार्णव, सर्ग ४१ श्लोक १२ २३२ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्टयादिगुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग ४१ श्लोक १२ २३३ छेस्थयोगिनामायै द्वे तु शुक्ले प्रकीत्तिते । द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञान चक्षुषाम् ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं.७
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