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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
Ti4 3844.........{195} के अन्त में यह कहा गया है कि अयोगी परमात्मा को समुच्छिन्न क्रिया नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । २३४ यहाँ यह भी कहा है कि इस अवस्था में जो तेरह कर्मप्रकृतियाँ अपविष्ट थीं, वे समाप्त हो जाती हैं । २३५
इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शुभचंद्र ने चारों ध्यानों के अधिकारियों की चर्चा करते हुए स्पष्टरूप से यह बताया है कि किस गुणस्थानवर्ती जीव किस ध्यान के अधिकारी होते हैं । इसप्रकार उन्होंने चारों ध्यानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण किया है । चाहे उन्होंने समग्ररूप से चौदह गुणस्थानों की चर्चा न की हो, किन्तु वे गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । हमारी दृष्टि में ज्ञानार्णव का मुख्य प्रतिपाद्य चारों प्रकार के ध्यान ही रहे हैं, अतः उनके लिए यहाँ गुणस्थानों की समग्र चर्चा अपेक्षित नहीं थी । अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही गुणस्थानों का अवतरण किया।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान
दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, स्वामी कार्तिकेय की रचना मानी जाती है । इनका एक अन्य नाम कुमार श्रमण भी प्रचलित रहा है । इस ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपने इसी नाम का संकेत दिया है । यह ग्रन्थ बारह अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का चित्रण करता है । कालक्रम की दृष्टि से यह ग्रन्थ पांचवीं - छठी शताब्दी के लगभग माना जा सकता है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, इस ग्रन्थ में कहीं भी चौदह गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन इसे चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पांचवीं शताब्दी के पूवार्द्ध का ग्रन्थ मानते हैं । कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे अभाव हो, किन्तु उसमें कर्मनिर्जरा ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख उपलब्ध होता है । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम तथा आचारंग निर्युक्ति में दस अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ इसमें ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में वेदनाखंड की भूमिका में मूलगाथाओं में दस अवस्थाओं का ही चित्रण है, किन्तु उसके सूत्रों में अन्तिम जिन अवस्था के सयोगी और अयोगी-ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । स्वामी कार्तिकेय ने भी निर्जरा अनुप्रेक्षा में इन्हीं ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है; किन्तु यहाँ तत्त्वार्थसूत्र में इन दस अवस्थाओं का चित्रण सम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ होता है वहाँ कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि (अविरत) को असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने मिथ्यादृष्टि नामक अवस्था का भी संकेत किया है, क्योंकि सम्यक् की उपलब्धि के हेतु त्रिकरणवर्ती आत्मा के अपूर्वकरण करते समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने निर्जरा अनुप्रेक्षा की चर्चा में बारह अवस्थाओं का निर्देश किया है । वे निम्न है - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सम्यग्दृष्टि (३) अणुव्रतधारी (४) महाव्रतधारी (५) प्रथम कषाय चतुष्क वियोजक ( ६ ) दर्शनमोहक्षपक (७) कषाय उपशमक (८) उपशान्तकषाय (६) क्षपक (१०) क्षीणमोह (११) सयोगी और (१२) अयोगी । २३६
२३४ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ।। २३५ विलयं पीतरागस्य पुनर्यान्ति त्रयोदश ।
चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ।। २३६ मिच्छादो सधिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि ।
ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं. ५३
ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं. ५४
तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी ।। १०६ ।। पढमकसायचउन्हं, विजोजओ तह य खवयसीलो य । दंसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग चत्तारि ।। १०७ ।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया । एदे उवरिं उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया ।। १०८ ।।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा क्रमांक- १०६, १०७, १०८ (दुलीचंद जैन ग्रन्थमाला सोनगढ़, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण वी.नि.सं. २५०० )
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