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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{196} इसप्रकार यहाँ मिथ्यात्व का समावेश करने तथा सयोगी और अयोगी का विभेद स्वीकार करने पर भी कुल ग्यारह अवस्थाओं का ही उल्लेख मिलता है । मूलगाथाओं में कषायउपशमक के बाद उपशान्तकषाय का उल्लेख नहीं हुआ है । यदि हम उसको समाविष्ट करते हैं तो बारह नाम उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन नामों में कहीं भी सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख नहीं है । उसके स्थान पर क्षपक और उपशमक के उल्लेख मिलते हैं। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में दंसणमोहतिअस्स और उवसमगचत्तारि, ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है । अनुवादकों ने यहाँ दंसणमोहतिअस्स में तीन करणों का समावेश किया है, किन्तु उवसमगचत्तारि से क्या ग्रहण किया जाए यह स्पष्ट नहीं होता है । सम्भावना यह माना जा सकता है कि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-ऐसी चार अवस्थाओं का निर्देश हो सकता है; किन्तु यह मानने पर हमें यह भी मानना होगा कि स्वामी कार्तिकेय गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे हैं, लेकिन उनके इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी स्पष्ट निर्देश न मिलने से वास्तविकता क्या है, इसे कहना कठिन है ।
योगसार योगिन्दुदेव दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य विद्वान हैं । इनके दो ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। एक परमात्मप्रकाश और दूसरा योगसार । हमें इनके योगसार नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का संकेत उपलब्ध होता है । योगसार की १७ वीं गाथा में वे कहते हैं कि व्यवहार दृष्टि से ही मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा की जाती है । निश्चयनय से तो आत्मा ही है । यहाँ हम देखते हैं कि आत्म तत्व ही है । मार्गणास्थान और गुणस्थान ये संसारी आत्मा में ही घटित होते हैं, शुद्ध आत्मा में नहीं होते हैं । योगिन्दुदेव के इस कथन में हमें आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों की ही झलक मिलती है । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में स्पष्टरूप से यह कहा है कि आत्मा न तो मार्गणास्थान है, न जीवस्थान और न ही गुणस्थान, क्योंकि मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान की चर्चा कर्म एवं शरीरों के आधार पर ही की जाती है । कर्म और शरीर आत्मा से भिन्न हैं । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द के समान ही योगिन्दुदेव ने मार्गणास्थान और गुणस्थान की अवधारणा को व्यवहारनय की अपेक्षा से ही स्वीकार किया है। योगिन्दुदेव के इस उल्लेख से इतना स्पष्ट होता है कि वे गुणस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों को भी स्पष्टरूप से जानते थे । यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि योगिन्दुदेव का काल लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनके पूर्व आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (लगभग छठी शताब्दी) अपनी तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्धों की विस्तृत चर्चा कर चुके थे । योगिन्दुदेव ने चाहे अपने ग्रन्थों में मार्गणास्थान और गुणस्थान की विस्तृत चर्चा नहीं की है, किन्तु वे इन अवधारणाओं से सुपरिचित रहे हैं, इसमें शंका की कोई स्थिति नहीं है । इतना स्पष्ट है कि योगिन्दुदेव निश्चय दष्टि से आत्मा में गणस्थानों या मार्गणास्थानों को स्वीकार नहीं करते । यह तो स्पष्ट है कि गणस्थान का सम्बन्ध कर्मों के क्षय उपशम से है। अपने पक्ष के समर्थन में परमात्मप्रकाश में योगिन्ददेव कहते हैं कि जिसप्रकार (द्वितीय प्रकाश गाथा क्रमांक १७..पेज क्रमांक ३४६) रक्त वस्त्र को धारण करने से शरीर को रक्त नहीं कहा जा सकता है. उसीप्रकार देह आदि के वर्ण के आधार पर आत्मा को उस वर्ण का नहीं माना जा सकता है । अतः कर्मों के क्षय-उपशम आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाली विभिन्न अवस्थाओं को आत्मा में घटित नहीं किए जा सकते हैं । गुणस्थान शुद्ध आत्मा की अवस्थाएं नहीं है । वे संसारी आत्मा के कर्म के निमित्त से होने वाली अवस्थाएं हैं । इस प्रकार चाहे योगिन्दुदेव ने विस्तार से गुणस्थान की चर्चा नहीं की हो, फिर भी शुद्ध आत्मा में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि के निषेध से यह तो स्पष्ट है कि वे इन अवधारणाओं से परिचित रहे हैं । उनका वैशिष्ट्य यही है कि या तो वे गुणस्थान की अवधारणा को शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में स्वीकार नहीं करते या गुणस्थान की सत्ता को मात्र व्यवहार के स्तर पर ही मानते हैं ।
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