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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तत्त्वार्थराज वार्तिक में गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों के आसव का विवेचन : तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में अकलंकदेव ने छठें अध्याय के चौथे सूत्र में आस्रव की व्याख्या करते हुए, कौन-से गुणस्थान में, कितने कर्मों का आस्रव होता है, इस बात का निर्देश किया है। आस्रव के अनन्त भेद हैं, परन्तु यहाँ अकलंकदेव ने जीव (स्वामी) की अपेक्षा आस्रव के दो भेद बताए हैं । साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ-आस्रव । गुणस्थान की अपेक्षा जीव के, सकषाय जीव और अकषाय जीव- ऐसे दो भेद बताए गए हैं । कषायसहित जीवों को साम्परायिक-आस्रव होता है और कषायरहित जीवों को ईर्यापथ-आस्रव होता है, जिससे संसारभाव की वृद्धि होती है, इसे कषाय कहते हैं । क्रोधादि चार कषाय कहलाते हैं । सम्पराय, संसार का पर्यायवाची नाम है। जो कर्म संसार के प्रायोजक है और जो कर्म कषायजनित है, उनके आस्रव को साम्परायिक-आस्रव कहा जाता है । ईर्या की व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी । ईर्या अर्थात् योगगति, जो कर्म योग अर्थात् मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों के निमित्त आते हैं; उनका आस्रव ईर्यापथ-आस्रव कहलाता है । कषायसहित जीवों को साम्परायिक आस्रव और कषायरहित जीवों को ईर्यापथ-आस्रव होता है । प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक जीव को कषाय रहता है । कषाय के कारण जो कर्म आते हैं तथा वे तेलादि से लिप्त कपड़े पर पड़ी धूल की तरह आत्मप्रदेशों से चिपक जाते हैं, इसमें स्थितिबन्ध होता है; अतः कषाय-भाव के निमित्त कर्म वर्गणाओं का आना साम्परायिक- आस्रव है । उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीवों को कषाय नहीं होता, मात्र योग होते हैं। योग के कारण जो कर्म आता है वह, जिस प्रकार • शुष्क कपड़े पर लगी हुई धूल शीघ्र ही निर्जरित हो जाती है, उनका स्थितिबन्ध नहीं होता, ऐसा कषायरहित मात्र योग के निमित्त से होने वाला आसव ईर्यापथिक- आस्रव होता है । तत्त्वार्थ सूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका के कर्ता अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के दसवें सूत्र के वार्तिक (टीका) में कौन-से गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं, इस बात का उल्लेख किया है। जो सहन किया जाता है, वह परिषह कहलाता है । प्रश्न यह है कि परिषह विजेता बनने से जीव को क्या लाभ होता है ? कर्म के आस्रव द्वार को रोकनेवाले जिनेन्द्र प्रोक्त मार्ग से व्यक्तिच्युत न हो जाए, इसीलिए परिषह पर विजय पाई जाती है। परिषह पर विजय पानेवाली आत्मा, क्षपक श्रेणी पर चढ़ने के सामर्थ्य को प्राप्त कर उत्तरोत्तर उत्साह को बढ़ाती हुई, सम्पूर्ण कषायों की बन्धक बनानेवाली शक्ति को नष्ट कर कर्मों की जड़ को काटकर, वैसे ही मुक्ति को प्राप्त कर लेती है, जैसे पक्षी पंखों पर जमी हुई धूल को झाड़कर मुक्त गगन में ऊपर उड़ जाते हैं अतः कर्मों के संवर और निर्जरा के लिए परिषहों को सहन करना चाहिए । चतुर्थ अध्याय........{244} तत्त्वार्थवार्तिककार ने बताया है कि दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में चौदह परिषह होते हैं। मोहनीय कर्म का उदय-विच्छेद हो जाने से इन तीन गुणस्थानों में मोहनीय सम्बन्धी आठ परिषह नहीं होते हैं । दसवें में संज्वलन लोभ का उदय होता है, परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म होने से उसका कोई फल नहीं होता है, उसका मात्र सद्भाव ही है, उसी कारण से उपशान्तकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान और क्षीणकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान की तरह सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में भी चौदह परिषह होते हैं और जिन भगवान अर्थात् सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में ग्यारह परिषह होते हैं । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के बादरसम्पराय अर्थात् कषाय के निमित्तों के विद्यमान रहने से इन थानों में सभी परिषह होते हैं । तत्त्वार्थराजवार्तिक में संवर के स्वरूप विवेचन में गुणस्थानों का अवतरण : आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका करते हुए संवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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