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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय.......{245} के स्वरूप का विशेष परिज्ञान कराने के उद्देश्य से चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया है। यहाँ उन्होंने सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान २. सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ४. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ५. संयतासंयत गुणस्थान ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ८. अपूर्वकरण उपशमक-क्षपक गुणस्थान ६. अनिवृत्तिबादर उपशमक-क्षपक गुणस्थान १०. सूक्ष्मसंपराय उपशमक-क्षपक गुणस्थान ११. उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान १२. क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान १३. सयोगी केवली गुणस्थान और १४. अयोगी केवली गुणस्थान। इन नामों के निर्देश के पश्चात् उन्होंने उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है, जो इस प्रकार है - १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : __ जिस व्यक्ति को मिथ्यादर्शन अथवा मिश्रमोह का उदय हो, वह मिथ्यादृष्टि है । इसके कारण जीवों का तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता है, साथ ही ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाले तीनों ज्ञान भी मिथ्याज्ञान माने जाते हैं । यहाँ आचार्य अकलंकदेव ने यह स्पष्ट किया है कि मिथ्यादृष्टि जीव भी मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं । प्रथम वे, जिनमें अपने हिताहित को समझने की शक्ति नहीं होती । दूसरे वे, जो अपने हिताहित को समझने की शक्ति रखते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अपने हिताहित को समझने में असमर्थ होते हैं, जबकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में अपने हिताहित को समझने की विकल्प से शक्ति होती है, अर्थात् कुछ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव अपने हिताहित को समझते हैं और उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनमें अपने हिताहित की समझ नहीं होती। अपने हिताहित का अभाव ही मिथ्यादर्शन है । मिथ्यात्वमोह का उदय होने के कारण ये जीव, पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते हुए भी अपने हिताहित के विवेक से रहित होते हैं । व्यक्ति में अपने हिताहित को समझने का अभाव ही मिथ्यादर्शन है। २. सासादनसम्यग्दृष्टि : जिन जीवों को मिथ्यात्वमोह का उदय नहीं होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उदय बना रहता है, वे सासादनसम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं । यहाँ, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित होता है, किन्तु सम्यक्त्व से पतित होकर भी जब तक उसमें मिथ्यात्व का उदय नहीं होता तब तक सासादनसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । यह गुणस्थान, सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करके, फिर उससे पतित होने की अवस्था में ही प्राप्त होता है । मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर जीव किस प्रकार से आगे बढ़ता है, उस विकास यात्रा के तीन करण ये हैं - यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । गुणस्थान सिद्धान्त में हम इन तीनों करणों को किसी सीमा तक सातवें, आठवें और नवें गुणस्थान के समतुल्य कह सकते हैं । आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव में मोहनीय कर्म की २६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने अभी तक सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं किया है, इसीलिए उसे मात्र दर्शनमोह से ही युक्त माना गया है। उसमें सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह का अभाव रहता है, जबकि सारे मिथ्यादृष्टि जीव अर्थात जिसने एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया है, ऐसे जीव में विकल्प से मोहनीय कर्म की २६, २७ और २८ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । जब कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तब वह अनन्तगुणी आत्मविशुद्धि करते हुए शुभ परिणामों से युक्त होता है । उस समय वह चार मनोयोगों में से एक मनोयोग, चार वचनयोगों में से एक वचनयोग और औदारिक एवं वैक्रिय काययोगों में से कोई भी एक काययोग प्राप्त होता है । साथ ही उसकी कषाय भी हीन हो जाती है । यद्यपि यह सम्भव है कि चारों कषायों में से एक कषाय अत्यन्त हीन हो । इसी प्रकार वह साकारोपयोग, तीनों वेदों में से एक वेद से युक्त होता है । वह संक्लेश रहित होकर वर्धमान शुभ परिणामों के द्वारा अशुभ कर्मप्रकृतियों के अनुभाग एवं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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