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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{243} उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान में ही होती है । क्षीणमोह गुणस्थान की एक समय अधिक चरमावलि को छोड़कर क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को निद्रा और प्रचला की उदीरणा होती है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय की उदीरणा चरमावलि रहित क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को होती है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, छः संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ऋषभनाराच संघयण, वर्ण नामकर्म, गन्ध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, विहायोगतिद्विक, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, निर्माण नामकर्म और उच्चगोत्र-इन अड़तीस कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव को चरम समय तक होती है । तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृतियों की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थान में होती है । अयोगी केवली गुणस्थानवी जीव अनुदीरक होता है । चार गतियों में गुणस्थानों का अवतरण :
तत्त्वार्थवार्तिककार अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय के २१ वें सूत्र की टीका में, देवगति में उत्पन्न होनेवाले जीवों की चर्चा के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि और श्रावक-इन चार गुणस्थानों का नाम निर्देश किया है। यहाँ चर्चा का मुख्य विवेच्य विषय तो यह है कि किस गुणस्थानवर्ती संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य, किस देवलोक में उत्पन्न होते हैं । इसी चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती संज्ञी तिर्यंच सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है, जबकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच अच्युत देवलोक पर्यन्त किसी भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है । इसी क्रम में आगे यह भी बताया है कि मिथ्यादृष्टि तथा सासादन गुणस्थानवी मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंच और अन्य लिंगी तापस आदि ज्योतिष्क देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु यदि ये ही सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हो तो सौधर्म और इशान स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं । संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य, यदि वे मिथ्यादृष्टि अथवा सासादन गुणस्थानवर्ती हैं, तो भवनपति से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं । मिथ्यादृष्टि संज्ञी मनुष्य, यदि वह निग्रंथ लिंग को धारण करता है और उत्कृष्ट तप करता है, तो वह भी अन्तिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है, किन्तु इसके आगे अनुत्तर विमान में तो सिर्फ सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही उत्पन्न हो सकते हैं । इसी चर्चा के प्रसंग में यह भी बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि या सासादन गुणस्थानवर्ती तपस्वी परिव्राजक ब्रह्म स्वर्ग तक, आजीवक सहस्रार स्वर्ग तक तथा व्रतधारी श्रावक अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है । यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जहाँ मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों को जब ग्रैवेयक तक उत्पन्न होने की संभावना को स्वीकार किया गया है, तो फिर व्रतधारी श्रावक का अच्युत स्वर्ग पर्यन्त ही उत्पात क्यों माना गया है ? हमारी दृष्टि में यहाँ अकलंकदेव का तात्पर्य यह हो सकता है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य यदि निग्रंथ लिंगो को धारण करके तप आदि करता है, तो उस लिंग के कारण ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है । चूँकि इन गुणस्थानों में रहा हुआ व्रतधारी श्रावक निग्रंथ लिंग को धारण नहीं करता, अतः उसका उत्पात अच्युत स्वर्ग तक ही माना गया है । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य अकलंकदेव ने मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और विरताविरतसम्यग्दृष्टि-ऐसे पांच गुणस्थानों में से मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष चार का उल्लेख किया है । चूंकि मिश्र गुणस्थान में मृत्यु की संभावना ही नहीं है, अतः देवगति के सन्दर्भ में उसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं थी, इसीलिए नहीं की गई है । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र की वार्तिक नामक यह टीका लिखते समय आचार्य अकलंकदेव गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित थे । आगे छठे एवं नवें अध्याय में भी उन्होंने विविध गुणस्थानों, कर्मों के आश्रव, संवर, उदय, उदीरणा आदि जो चर्चा की है, उससे भी यह बात पुष्ट होती है।
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