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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{242} और सेवार्त्त संहनन-इन तीन प्रकृतियों का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, आगे के गुणस्थान में नहीं होता है । हास्यषट्क की छः प्रकृतियों का उदय मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक रहता है । वेदत्रिक और संज्वलन क्रोध, मान, माया का उदय प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान तक रहता है । इनका उदयविच्छेद अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान के सात भागों में से एक-एक भाग में क्रमशः होता है। संज्वलन लोभ का उदय सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है । वज्रऋषभनाराच संघयण तथा नाराच संघयण का उदय उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है। निद्रा और प्रचला का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक अन्तिम समय तक रहता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय का उदय क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय तक होता है । कोई एक वेदनीय, औदारिक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म, कार्मणशरीर नामकर्म, छःसंस्थान, औदारिक अंगोपांग नामकर्म, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण नामकर्म, गन्ध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म और निर्माण नामकर्म-इन तीस प्रकृतियों का उदय सयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय तक है । कोई एक वेदनीय, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वसनामकर्म, बादर नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशकीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्र-इन ग्यारह प्रकृतियों का उदय अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय तक रहता है । तीर्थकर नामकर्म का उदय सयोगी केवली गुणस्थान में और अयोगी केवली गुणस्थान में रहता है । अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होता है । इसप्रकार गुणस्थानों में आठों कर्म की एक सौ अट्ठावन कर्मप्रकृतियों का उदय बताया गया है। गुणस्थानों में उदीरणाविचार : कर्म का उदयकाल परिपक्व न हुआ हो, फिर भी उस कर्म को उदयावलिका में लाकर उसका भोग करना, उदीरणा कहलाती है । मिथ्यात्व मोहनीय की उदीरणा उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के चरमावलि को छोड़कर अन्यत्र होती है । एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क की उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान तथा सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होती है। मिश्र मोहनीय की उदीरणा मिश्र गुणस्थान में होती है, अन्य गुणस्थानों में नहीं होती है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, नरकगति, देवगति, वैक्रियद्विक, दुर्भग नामकर्म, अनादेय नामकर्म और अयशः कीर्तिनामकर्म-इन ग्यारह प्रकृतियों की उदीरणा, प्रथम गुणस्थान से चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है । नरकायु और देवायु की मरणकाल में चरमावली को छोड़कर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है, अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होती है । चारों आनुपूर्वी की उदीरणा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में विग्रहगति करते समय होती है । प्रत्याख्यानीय चतुष्क, तिर्यंचगति, उद्योतनाम और नीचगोत्र-इन सात प्रकृतियों की उदीरणा देशविरति गुणस्थान तक होती है । थीणाद्धित्रिक, शाता-अशाता वेदनीय की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होती है। आहारक शरीरवालों में,चरमावली में उदीरणा नहीं होती है। आहारकद्विक की उदीरणा प्रमत्तसंयत में ही होती है। मनुष्यायु की उदीरणा मरणकाल में चरमावलि को छोड़कर मिश्र गुणस्थान के अलावा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । वेदक सम्यक्त्व की उदीरणा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन की उदीरणा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । हास्यषट्क की छः प्रकृतियों की उदीरणा अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक होती है। तीन वेद और संज्वलन क्रोध, मान और माया की उदीरणा अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान तक होती है। उसके छः भागों में, प्रत्येक में, एक-एक उदीरणा का विच्छेद होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चरमावली को छोड़कर, शेष प्रथम से लेकर दसवें गुणस्थानवी जीवों के संज्वलन लोभ की उदीरणा होती है । ऋषभनाराच संघयण तथा नाराच संघयण की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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