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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{241} और औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । तिर्यंच में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक- ये तीन सम्यक्त्व होते हैं । संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक के अतिरिक्त शेष दो सम्यक्त्व हैं, क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्व के साथ पूर्वबद्ध तिर्यंचायुवाले प्राणी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं । कर्मभूमि के तिर्यंच में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि क्षपणा को आरम्भ करनेवाला पुरुष वेदवाला मनुष्य ही होता है । मनुष्यों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संयतासंयत गुणस्थान और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व- ये तीनों सम्यक्त्व होते हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषीदेव और उनकी देवियों में तथा सौधर्म एवं ईशान कल्पवासिनी देवियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व होते हैं । सौधर्म देवलोक से लेकर ग्रैवेयक तक क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व होते हैं । अनुदिश और अनुत्तरविमानवासी देवों में क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व होते हैं । औपशमिक भी उपशम श्रेणी में मरनेवालों की अपेक्षा हो सकता है । संज्ञी मार्गणा में संज्ञी जीव मिथ्याग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । असंज्ञी मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव होते हैं, इनमें मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । सयोगी केवली गुणस्थान तथा अयोगी केवली गुणस्थान- ये दो गुणस्थान ऐसे होते हैं, जिनमें संज्ञी - असंज्ञी का व्यवहार नहीं है । आहार मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त तथा अनाहार में विग्रहगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान- ये पांच गुणस्थान होते हैं । ध्यानों में गुणस्थान : तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक टीका में अकलंकदेव ने नवें अध्याय के सैंतीसवें सूत्र में धर्मध्यान के चार प्रकार बताए हैं । आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मानकर पदार्थों के स्वरूप का निश्चय कर उन पर श्रद्धा न करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञान नेत्र अंधकार से आच्छादित हो रहे हैं, सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञा से विमुख मोक्षार्थी सम्यक् पथ का ज्ञान न होने से सन्मार्ग दूर से ही भटक जाते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का विचार करना - चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है । प्राणी पापकारी वचन और पापकारी वासनाओं से किस प्रकार निवृत्त होकर सुपथगामी बनें, इसप्रकार अपायचिन्तन अपायविचय धर्मध्यान है । ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों के फल का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है । लोक के स्वभाव, संस्थान तथा द्वीप, नदी आदि के स्वरूप का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । विपाकविचय धर्मध्यान में आचार्य अकलंकदेव ने विभिन्न गुणस्थानों में कर्मों के उदय उदीरणा का वर्णन किया है । मिथ्यात्व-मोहनीय, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजाति, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन दस प्रकृतियों का प्रथम गुणस्थान में उदय रहता है । अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का पहले और दूसरे गुणस्थान में उदय रहता है । मिश्रमोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है, अन्य गुणस्थानों में नहीं होता है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, नरकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, चारों आनुपूर्वी, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अयशकीर्तिनामकर्म-इन सत्रह प्रकृतियों का उदय पहले से चौथे गुणस्थान तक ही रहता है । चारों आनुपूर्वी का उदय मिश्र गुणस्थान में नहीं होता है । प्रत्याख्यानीय चतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंच आयुष्य, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र- इन आठ कर्म प्रकृतियों का उदय देशविरति गुणस्थान तक रहता है। थीणद्धित्रिक कर्मप्रकृतियों का उदय आहारक शरीर की निवृत्ति न करनेवाले प्रमत्तसंयत को होता है । आहारकद्विक का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं होता है। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक रहता है । अर्धनाराच, कीलिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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