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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय.......{240} गुणस्थान होते हैं । अनुदिश, अनुत्तरवासी पर्याप्त और अपर्याप्त में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय में चौदह ही गुणस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय पर्यन्त, स्थावरकाय में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं। सत्य मनोयोग और अनुमय मनोयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । सत्य मनोयोग और उभय मनोयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । अनुभय वचनयोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । सत्य वचनयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त तेरह गुणस्थान, मृषा वचनयोग और उभय वचनयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थान-ये चार गुणस्थान होते हैं । वैक्रिय काययोग में प्रथम चार गुणस्थान, वैक्रिय मिश्र काययोग में मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष तीन ही गुणस्थान होते हैं। आहारक
और आहारकमिश्र काययोग में एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है । कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ गणस्थान होता है। अयोग में एक अयोगी केवली गुणस्थान होता है । स्त्रीवेद और पुरुषवेद में असंज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय तक नौ गुणस्थान होते हैं । नपुंसकवेद में नारकी में चार गुणस्थान, एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के प्राणियों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यच तीनों वेदवाले होते हैं । मनुष्य में तीनों वेदों में अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं । इसके आगे मनुष्य अपगतवेदी होते हैं । देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले होते हैं । क्रोध, मान, माया कषाय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक नौ गुणस्थान तथा लोभकषाय में उपर्युक्त नौ और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान-ऐसे दस गुणस्थान होते हैं । इससे आगे के गुणस्थानों में जीव कषाय रहित होते हैं । मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगदृष्टि गुणस्थान होते हैं । विभंगज्ञान में मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि पर्याप्त ही होते हैं, अपर्याप्त नहीं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि अज्ञान में होता है, क्योंकि कारण सदृश कार्य होता है । मति, श्रुत और अवधिज्ञान में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के आठ गुणस्थान, मनःपर्यवज्ञान में प्रमत्तसयंत से लेकर क्षीणकषाय तक सात गुणस्थान तथा केवलज्ञान में सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान होते हैं। सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान तक चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धि में प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय में सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान-ये चार गुणस्थान होते हैं । सयंमासंयम में एक संयतासंयत गुणस्थान होता है । असंयम में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं । चक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह तक बारह गुणस्थान, अचक्षुदर्शन में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान, अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक और केवलदर्शन में सयोगी केवली तथा अयोगी केवली-ये दो गुणस्थान होते है । प्रथम की तीन लेश्याओं में प्रथम के चार गुणस्थान, तेजो तथा पद्मलेश्या में संज्ञी जीवों को प्रथम के आठ गुणस्थान, शुक्ललेश्या में संज्ञी प्राणियों में प्रथम के तेरह गुणस्थान होते हैं। अयोगी केवली गुणस्थान अलेशी होता है। भव्यों में चौदह गुणस्थान तथा अभव्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक, वेदक सम्यक्त्व में चौथे से आठवें तक पांच गुणस्थान, औपशमिक सम्यक्त्व में चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान, सासादनसम्यक्त्व में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान और मिथ्यात्व में एक अपना-अपना गुणस्थान होता है । नरक में प्रथम पृथ्वी में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि तथा अन्य पृथ्वी में वेदक
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