________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय......{239) त्रसकाय में तीनों विकलेन्द्रियों के पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे छः भेद, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त-ये चार, इस प्रकार दस जीवस्थान होते हैं । मनोयोग में एक संज्ञी पर्याप्त जीवस्थान होता है। वचनयोग में तीनों पर्याप्त विकलेन्द्रिय, पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय-ये पांच जीवस्थान होते हैं । काययोग में चौदह जीवस्थान होते हैं । स्त्रीवेद और पुरुषवेद में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय-ये चार जीवस्थान होते हैं । नपुंसकवेद में चौदह जीवस्थान होते हैं । अवेद में अर्थात् वेदरहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान होता है । चारों कषायों में चौदह ही जीवस्थान और अकषाय अर्थात् कषायरहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान होता है । मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान में चौदह जीवस्थान; विभंगज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान; मति-ज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान तथा केवलज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । असंयत में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अचक्षुदर्शनो में चौदह, चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-ये तीन जीवस्थान होते हैं । अवधिदर्शन में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान होते हैं । कृष्ण, नील, कापोत प्रथम की तीन लेश्या में चौदह जीवस्थान; तेजो, पद्म, शुक्ललेश्या में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-दो ही जीवस्थान होते हैं। लेश्यारहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । भव्य जीवों और अभव्य जीवों में चौदह जीवस्थान होते हैं । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और सास्वादन सम्यक्त्व में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान और मिथ्यात्व में चौदह ही जीवस्थान होते हैं। संज्ञी में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान
और अंसज्ञी में शेष बारह जीवस्थान होते हैं। संज्ञी-असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों में पर्याप्त पंचेन्द्रिय नामक एक जीवस्थान होता है । आहार मार्गणा में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अनाहार मार्गणा में सातों अपर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-ऐसे आठ जीवस्थान होते हैं। मार्गणाओं में गुणस्थान :
___ नरकगति में पर्याप्त नारकी में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं । प्रथम नरक में अपर्याप्त को पहला और चौथा गुणस्थान तथा अन्य पृथ्वियों में अपर्याप्त में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । तिर्यंचगति में पर्याप्त को प्रथम के पांच गुणस्थान, अपर्याप्त को मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं । पर्याप्त तिर्यंची में प्रथम के पांच गुणस्थान और अपर्याप्त तिर्यची में मिथ्यादृष्टि और सासादन-ये दो गुणस्थान होते हैं । स्त्रीतिर्यंच में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होती है, अतः अपर्याप्तदशा में सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता है । मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं तथा अपर्याप्त मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य, स्त्री में भावलिंग की अपेक्षा चौदह गुणस्थान होते हैं । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि भाव क्या स्त्रीलिंग होता है ? लिंग तो द्रव्य होता है और यदि वेद अपेक्षा भावलिंग माने तो स्त्रीवेद का उदय तो दसवें के प्रारम्भ तक ही है, फिर उसमें चौदह गुणस्थान कैसे होंगे? द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्त स्त्री में मिथ्यात्व और सासादन-ये दो गुणस्थान होते हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्त्री पर्याय में उत्पन्न ही नहीं होता है। अपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । देवगति में पर्याप्त भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रथम के चार गुणस्थान, किन्तु अपर्याप्त में मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान-ये दो गुणस्थान ही होते हैं। इनकी देवियों और सौधर्म एवं ईशान देवलोक की देवियों में भी अपर्याप्तदशा में मिथ्यात्व और सास्वादनसम्यक्त्व गुणस्थान ही होते हैं । सौधर्म-ईशान आदि से अन्तिम ग्रैवेयक तक के पर्याप्त दशा में, देवी में प्रथम के चार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org