________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
चतुर्थ अध्याय ........{238}
ने
गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या में किया है, वही आचार्य अकलंकदेव ने मुख्य रूप से तत्त्वार्थसूत्र के चौथे, छठे और नवें अध्याय में ही गुणस्थान की अवधारणा का विवेचन किया है । आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान सिद्धान्त का आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं को लेकर जो विस्तृत विवेचन किया है, उतना विस्तृत विवेचन अकलंक के तत्त्वार्थराजवार्तिक में उपलब्ध नहीं है । दूसरे यह भी एक आश्चर्यजनक बात है कि जहाँ तत्त्वार्थसूत्र के ६ वें अध्याय के ४५ वें सूत्र में आत्म-विशुद्धि की दस अवस्थाओं श्रेणियों को लेकर गुणस्थानों की जो विवेचना होना चाहिए थी, वहीं पर कोई भी आचार्य गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है । वहाँ न तो तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की टीका में गुणस्थानों का कोई उल्लेख मिलता है और न अकलंकदेव के तत्त्वार्थवार्तिक में ही, जब कि मूलसूत्र में गुणस्थानों से सम्बन्धित अनेक नाम उपलब्ध हैं । यदि हम सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में जिन-जिन स्थानों पर गुणस्थानों का विवेचन हुआ है, उनकी तुलना करें तो ऐसा लगता है कि जहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में जिन-जिन स्थानों पर गुणस्थानों का विवेचन हुआ है वे तो कुछ प्रासंगिक लगते हैं, वहीं सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय
गुणस्थान सिद्धान्त की जो चर्चा है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि गुणस्थानों सम्बन्धी यह विवेचन निरूद्देश्य है । उसकी यहाँ प्रासंगिकता सिद्ध नहीं होती है । दूसरे यह कि सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थानों के विवेचन में जो विस्तार है, वैसा विस्तार तत्त्वार्थवार्तिक में नहीं है, जब कि होना यह चाहिए था कि तत्त्वार्थवार्तिक के परवर्ती ग्रन्थ होने के कारण उसे अधिक विस्तार से इसकी चर्चा करनी चाहिए थी । पुनः यह भी प्रश्न उत्पन्न होता कि यदि अकलंकदेव ने अपनी तत्त्वार्थवार्तिक की टीका में पूज्यपाद देवनन्दी का अनुसरण किया तो उन्होंने प्रथम अध्याय के सत्संख्या आदि की टीका में गुणस्थानों का निर्देश क्यों नहीं किया ? इसके कारण विद्वानों के मन 'यह शंका उपस्थित होती है कि सर्वार्थसिद्धि में यह विवेचन बाद में तो नहीं डाला गया हो । यद्यपि सर्वार्थसिद्धि की जो भी उपलब्ध पाण्डुलिपि है अथवा उसके जो भी प्रकाशित संस्करण हैं, वे सभी प्रथम अध्याय के सत्संख्यादि सूत्र की टीका में भी गुणस्थानों का विवेचन करते हैं, अतः इस शंका के लिए कोई प्रामाणिक आधार प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । एक तार्किक सम्भावना के अतिरिक्त इसका अन्य कोई महत्व नही है।
आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में कहाँ-कहाँ, किस-किस रूप में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख किया है ।
वार्तिक टीका में मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विवेचन मार्गणाओं में जीवस्थान :
तत्त्वार्थवार्तिककार अकलंकदेव ने अपने इस टीका ग्रन्थ में मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह जीवस्थानों और चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया है। गुणस्थानों में जीवस्थान तो होते ही हैं, अतः यहाँ प्रथम जीवस्थानों की चर्चा की जाती है । तिर्यंचगति में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । मनुष्यगति, नरकगति और देवगति में संज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त-दो ही जीवस्थान होते हैं। एकेन्द्रियजाति में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त ये चार जीवस्थान ही होते हैं। विकलेन्द्रिय में अपने-अपने पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवस्थान तथा पंचेन्द्रियों में संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं । वनस्पतिकाय में अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय और अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय-ये चार जीवस्थान होते हैं । अकलंकदेव ने वनस्पतिकाय में छः जीवस्थान बताए हैं, ये किस दृष्टि से कहे हैं, स्पष्ट नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org