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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय.......{404} जीवसमास के कर्ता ने एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि ये तीनों लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती हैं। तेजस् और पद्म- ये दो लेश्याएँ समनस्क मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के जीवों में हो सकती है। शुक्ललेश्या का अस्तित्व मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक होता है । अन्तिम अयोगीकेवली गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है।
पुनः जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार की ७५ वीं गाथा में, भव्यमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। भव्य जीवों में उसी भव में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा सभी गुणस्थान होते हैं।
पुनः सम्यक्त्वमार्गणा के विवचेन के प्रसंग में गाथा क्रमांक ७६ में कहा गया है कि प्रथम तीन गुणस्थान में उनके नामानुरूप मिथ्यात्व, सास्वादन सम्यक्त्व और मिश्र सम्यक्त्व की सत्ता होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक,
औपशमिक और क्षायिक-तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की संभावना है। पुनः आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक या क्षायिक में से कोई एक सम्यग्दर्शन होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान के पश्चात् नहीं होता है। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक नियम से क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। कुछ आचार्यों के मत से चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक भी क्षायिक सम्यग्दर्शन की संभावना होती है ।
जीवसमास के प्रथम सत्प्ररूपणा द्वार की गाथा क्रमांक ८१ में संज्ञीमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया है कि सभी असंज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं। संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक बारह ही गुणस्थान पाए जाते हैं, शेष तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलीन तो संज्ञी होते है और न ही असंज्ञी, क्योंकि उनमें मनोयोग होते हुए भी विचार-विकल्प का अभाव होता है।
__ जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक ८२ में आहारमार्गणा में कहा गया है कि विग्रहगति में रहे हुए जीव, केवली समुद्घात करके रहे हुए सयोगीकेवली, अयोगीकेवली और सिद्ध अनाहारक होते हैं, शेष आहारक होते है। यद्यपि इस गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण नहीं किया गया है, किन्तु टीका में अन्य ग्रन्थों के आधार पर गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि विग्रहगति को प्राप्त अनाहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान ही होते हैं। इसके अतिरिक्त तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगीकेवली समुद्घात करते समय और अयोगीकेवली भी अनाहारक होते हैं। आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक तेरह ही गुणस्थान होते हैं। इसप्रकार जीवसमास के प्रथम सत्प्ररूपणा द्वार में चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में उपर्युक्त प्रकार से चौदह गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। जीवसमास के शेष द्वारों में गुणस्थानों का कहाँ और किस रूप में उल्लेख हुआ है, इसकी चर्चा अग्रिम पृष्ठों में करेंगे।
जीवसमास के द्वितीय परिमाणद्वार में विभिन्न गुणस्थानवी जीवों का परिमाण कितना है, इसका उल्लेख मिलता है। गाथा क्रमांक १४४ में बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कभी होते है और कभी नहीं होते हैं। यदि होते है, तो एक से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने हो सकते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थानवर्ती जीव भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण ही होते हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों की संख्या न्यूनतम दो हजार करोड़ और अधिकतम नौ हजार करोड़ होती है। सम्पूर्णकाल की अपेक्षा से इनका परिमाण संख्यात होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव एक समय में कम से कम एक और अधिक से अधिक चौवन जीव होते हैं । क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक के जीवों की संख्या न्यूनतम एक और अधिकतम एक सौ आठ होती है। सम्पूर्ण क्षपण काल की अपेक्षा कम से कम दो सौ और अधिकतम नौ सौ जीव होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या कम से कम दो करोड़ और अधिकतम नौ करोड़ होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। यदि हो, तो न्यूनतम एक और अधिकतम संख्यात हो सकते हैं। इसप्रकार जीवसमास के परिमाण द्वार में समकाल की अपेक्षा से विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या का विवेचन किया गया है।
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