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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय.....{405} जीवसमास के तृतीय क्षेत्रद्वार में गाथा क्रमांक १७८ में मात्र यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में है। शेष गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। यद्यपि केवली समुद्घात की अपेक्षा से सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सर्वलोक में भी होते हैं।
जीवसमास के चतुर्थ स्पर्शनद्वार में १६५-१६६ वीं गाथा में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, यह बताया है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का, सास्वादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव क्रमशः लोक के चौदह भाग रज्जु परिमाण क्षेत्र में से बारह, आठ, आठ तथा छः भाग परिमाण क्षेत्र को स्पर्श करके रहे हुए हैं। शेष प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवी जीव, लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं, किन्तु सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श केवली समुद्घात की अपेक्षा करते हैं।
जीवसमास के चतुर्थस्पर्शनद्वार की १६७ एवं १६८ - इन दोनों गाथाओं में कौन से गुणस्थानवर्ती देव, मनुष्य और तिर्यच, कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, इसे बताया गया है। मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानवर्ती भवनपति से लेकर ईशान देवलोक तक के देव नौ रज्जु की स्पर्शना करके रहे हुए हैं। मिश्रदृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मिथ्यादृष्टि मनुष्य तथा तिर्यंच सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती तिथंच तथा मनुष्य ईषत्प्राग्भार पृथ्वी में भी उत्पन्न होने से सात रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत गुणस्थानवी जीव मध्यलोक से अच्युतदेवलोक में जन्म लेने से छः रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए है। मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच या मनुष्य का मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होने से ये अपने स्थान में लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं।
जीवसमास के काल नामक पंचम द्वार की २१६ से २२५ गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में काल का एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा निरूपण किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सभी कालों में सदा पाया जाता है, क्योंकि नारक, मनुष्य तथा देवों में मिथ्यादृष्टि जीव असंख्य है और तिर्यंचों में अनन्त हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान भी सभी कालों में पाए जाते हैं । चौथे एवं पाँचवें गुणस्थानवी जीव संख्या की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग की प्रदेशराशि के समान संख्या में होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या हजार कोटि पृथक्त्व अर्थात् दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक, अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यात तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ होती हैं। अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थान का काल अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक और न्यूनतम एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा सास्वादन गुणस्थान एक समय से लेकर छः आवलिका तक तथा मिश्रदृष्टि गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। एक जीव की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त तथा सादि-सान्त-ऐसे तीन प्रकार का होता है। इनमें सादि-सान्त अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल तक रहता है। एक जीव की अपेक्षा से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल साधिक तेंतीस सागरोपम तथा देशविरति गुणस्थान एवं सयोगीकेवली गणस्थान का काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष का है। चौथे, पांचवें और तेरहवें गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहर्त ही है। क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ क्षीणमोह गुणस्थान एवं अयोगीकेवली गुणस्थान का उत्कृष्ट तथा जघन्य काल एक जीव की अपेक्षा एवं अनेक जीवों की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त परिमाण जानना चाहिए। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा तथा उपशमक एवं उपशान्तमोह गुणस्थान का काल एक तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है।
पुनः जीवसमास के पंचम काल नामक द्वार की २२८ वीं गाथा में मनुष्य में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का काल बताया गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा से मनुष्यों में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। जघन्य काल तो पूर्व में बता चुके हैं।
पुनः जीवसमास के पंचम काल नामक द्वार की गाथा क्रमांक २३५ एवं २३६ में गुणस्थानों का जघन्य काल बताया है। मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अभव्यत्व की अपेक्षा अनादि-अनन्त तथा भव्यत्व की अपेक्षा अनादि-सांत या सादि-सान्त होता है। वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से अनन्त होता है। सास्वादन गुणस्थान का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल छः आवलिका बताया गया है।
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