SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{403} गया है कि देवता और नारक में प्रथम चार गुणस्थान, तिर्यंचों में प्रथम पाँच गुणस्थान और मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। उसके पश्चात् इन्द्रियमार्गणा में जीवसमास की गाथा क्रमांक २४ में यह बताया गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह ही गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। शेष सभी जीवस्थानों में मात्र मिथ्यादष्टि गणस्थान ही होता है। जीवसमास इस सम्बन्ध में कोई विशेष विवेचन प्रस्तुत नहीं करता है। यद्यपि उसकी टीका में यह प्रश्न उठाया गया है कि बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय करण अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन गुणस्थान की संभावना मानी गई है, किन्तु जीवसमास के टीकाकार का कथन है कि करण अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन गुणस्थान की संभावना होने पर भी उसका काल अत्यन्त अल्प होने से उसकी यहाँ चर्चा नहीं की गई है। पुनः कायमार्गणा की गाथा क्रमांक २६ में मात्र यह बताया गया है कि त्रसकाय में चौदह ही गुणस्थान होते हैं, शेष कायों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। इसके पश्चात् योगमार्गणा में गाथा क्रमांक ५८ में कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थान सम्भव होते हैं। चूंकि मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होता, इसीलिए कार्मणकाययोग में मिश्र गुणस्थान की संभावना नहीं मानी गई है। जीवसमास में मूल में तो योगों में गुणस्थानों का अवतरण इसी रूप में है, किन्तु टीका में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि- इन तीन गुणस्थानों में तेरह योग सम्भव होते हैं। मिश्रदृष्टि गुणस्थान में दस योग, देशविरति गुणस्थान में ग्यारह योग, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेरह योग, अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान में नौ योग और सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का अभाव माना गया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा सर्वार्थसिद्धि, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में है, इसीलिए यहाँ उसके विस्तार में जाना आवश्यक नहीं है। जीवसमास की गाथा क्रमांक ६० में वेदों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गणस्थान तक तीनों वेद होते हैं। उसके पश्चात दसवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक वेद का अभाव होता है। । इसी गाथा में कषायमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए यह कहा गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गणस्थान तक चारों कषायों की संभावना रही हुई है। दसवें सूक्ष्मसंपराय गणस्थान में मात्र संज्वलन लोभ की सत्ता होती है। आगे के गुणस्थानों में कषायों का अभाव माना गया है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६५ में ज्ञानमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और सास्वादनसम्यग्दृष्टि - इन दोनों गुणस्थानों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान की संभावना होती है। (मिश्र गुणस्थान में ये तीनों अज्ञान भी मिश्र रूप से होते हैं।) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि तीनों ज्ञानों की संभावना होती है। यद्यपि किसी विरत मुनि को तीनों ज्ञानों के साथ मनःपर्यव ज्ञान भी हो सकता है। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मात्र केवल ज्ञान होता है। जीवसमास के गाथा क्रमांक ६६ एवं ६७ में संयममार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र एवं अविरतसम्यग्दृष्टि - ये चारों गुणस्थानवाले जीव असंयत है। पाँचवें देशविरति गुणस्थान में संयतासंयत रूप आंशिक चारित्र होता है। सर्वविरति प्रमत्तसंयत में सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात ये पाँचों चारित्र सम्भव हो सकते है, फिर भी प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान तक सामान्यतया सामायिक और छेदोपस्थापनीय - ये दो चारित्र होते हैं, किन्तु अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिहारविशुद्धि नामक चारित्र की संभावना स्वीकार की गई है। सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र होता है। उसके पश्चात् उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली इन चार गुणस्थानों में यथाख्यातचारित्र होता है। पुनः जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में दर्शनमार्गणा का विवेचन है । यद्यपि इस गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण तो नहीं किया गया है, किन्तु गाथा के अन्तरभाव के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक के सभी प्राणियों में अचक्षुदर्शन पाया जाता है। पुनः चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक चक्षुदर्शन पाया जाता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक अवधिदर्शन की भी संभावना है। शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में केवलदर्शन होता है। जीवसमास में लेश्यामार्गणा की चर्चा करते हुए, गाथा क्रमांक ७० में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया गया है कि कृष्ण, नील और कापोत - ये तीन लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में पाई जाती है। यहाँ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy