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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
षष्टम अध्याय........{402} रही है। कुछ दिगम्बर विद्वान षट्खण्डागम का काल दूसरी-तीसरी शताब्दी मानते हैं, किन्तु इस स्थिति में जीवसमास को उसके
थम-द्वितीय शताब्दी में रखना होगा। चाहे हम जीवसमास के रचनाकाल को लेकर कुछ मतभेद रखें, किन्तु इतना तो हमें स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में घटित किया गया है। गुणस्थान और मार्गणा के इस सह सम्बन्ध को आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना की मुख्य रूप में दो प्रमुख शैलियाँ रही हैं। प्रथम शैली के अनुसार गुणस्थानों का अवतरण मार्गणाओं में किया जाता है, तो दूसरी शैली के अनुसार गुणस्थानों का अवतरण कर्मप्रकृतियों के सत्ता, बन्ध, उदय, उदीरणा और क्षय के सन्दर्भ में किया जाता है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण ध्यान, परिषह आदि के प्रसंगों में भी किया गया है। जहाँ तक जीवसमास का प्रश्न है, जैसा हमने पूर्व में कहा जीवसमास सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में अवतरित करता है। उसके पश्चात् जीवसमास के परिणामद्वार, क्षेत्रद्वार, स्पर्शनद्वार, कालद्वार, अन्तरद्वार एवं अल्पबहुत्वद्वार में भी गुणस्थानों का विवेचन मिलता है। इस समग्र विवेचन के आधार पर हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त की कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और क्षय (निर्जरा) - इन स्थितियों को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त का व्यापक विवेचन जीवसमास में उपलब्ध है। ।
यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जीवसमास में गुणस्थानों को जीवसमास के नाम से उल्लेखित माना गया है। यद्यपि इसमें उनके लिए गुण शब्द का भी उल्लेख हुआ है । इनके लिए गुणस्थान शब्द के प्रयोग के पूर्व इन चौदह अवस्थाओं को समवायांग और षट्खण्डागम में क्रमशः जीवस्थान या जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है। गुणस्थानों को जीवस्थान या जीवसमास कहने की परम्परा निश्चित ही प्राचीन रही है। षट्खण्डागम के प्रारम्भ में गुणस्थानों को स्पष्टरूप से जीवसमास कहा गया है। ठीक इसी प्रकार जीवसमास की प्रथम गाथा एवं आठवीं और नवीं गाथाओं में भी चौदह गुणस्थानों को जीवसमास कहा गया है। समवायांग में चौदह गुणस्थानों के लिए जीवठाण शब्द का प्रयोग हुआ है। (१४/६५) इससे यह सिद्ध होता है कि गुणस्थान नामकरण के पूर्व गुणस्थानों के लिए जीवसमास या जीवस्थान - ऐसे नाम ही प्रचलित रहे है और जिन कृतियों में ये उपलब्ध होते हैं, उनकी प्राचीनता सुनिश्चित है। इस प्रकार इतना तो निश्चित है कि जीवसमास, षट्खण्डागम और देवर्द्धिगणि की अन्तिम आगम वाचना से पूर्ववर्ती या अधिक से अधिक उसका समकालीन तो है ही। गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में सर्वप्रथम अवतरण सम्भवतः जीवसमास में ही हुआ है और उसी का ग्रहण षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में हुआ है। ये दोनों ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व के ही हैं, अतः जीवसमास का काल तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् तथा षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका के मध्य ही है तथा लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में कहीं स्थिर होगा। इसप्रकार जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त का निरूपण करनेवाला प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। विभिन्न कर्मप्रकृतियों की सत्ता, बन्ध, उदय, उदीरणा आदि में गुणस्थानों का जो अवतरण हुआ है, वह भी लगभग छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है, अतः जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त की प्रस्तुति करनेवाला प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है। अग्रिम पंक्तियों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जीवसमास की किन-किन गाथाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण किस-किस रूप में हुआ है। जीवसमास में गुणस्थान की चर्चा
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि जीवसमास सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में अवतरित करता है। जीवसमास के सत्प्ररूपणाद्वार में गाथा क्रमांक ८ में चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख है। उसके पश्चात् सत्प्ररूपणाद्वार की गाथा क्रमांक २२ में चारों गतियों में कौन-कौन से गुणस्थान उपलब्ध होते हैं, इसकी चर्चा है। उसमें बताया
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