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अध्याय 6
प्राकृत और संस्कृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान
पूर्वधरकृत जीवसमास में गुणस्थान
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जीवसमास का सामान्य परिचय
श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की सर्वप्रथम विस्तृत व्याख्या करनेवाला यदि कोई ग्रन्थ है, तो वह जीवसमास है । जीवसमास एक प्राचीन ग्रन्थ है, क्योंकि इसे पूर्व साहित्य से उद्धृत माना गया है। इसकी अन्तिम गाथा से पूर्व की गाथा में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जीवसमास के अर्थ को सम्यक् प्रकार से जाननेवाला विविध अपेक्षाओं से कथित जिनोपदिष्ट दृष्टिवाद (दृष्टि-स्थान) का धारक अर्थात् विशिष्ट ज्ञाता बन जाता है। इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि जीवसमास के कर्ता के समक्ष दृष्टिवाद उपस्थित रहा होगा। इसकी टीका में भी इसे पूर्वधर आचार्य विरचित कहा गया । यद्यपि इस कथन से यह स्पष्ट नहीं होता है कि इसके कर्ता कौन रहे हैं? फिर भी इतना अवश्य माना जा सकता है कि वे पूर्वधर होंगे। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी पूर्वधरों की यह परम्परा ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही समाप्त हो चुकी थी। जीवसमास में ज्ञान - सिद्धान्त का जो विवेचन मिलता है, वह भी उसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। जीवसमास के कर्ता ने ज्ञान - सिद्धान्त की चर्चा के प्रसंग में तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुसरण किया है, नंदीसूत्र का नहीं। अतः यह ग्रन्थ नंदीसूत्र से पूर्ववर्ती ही होना चाहिए। प्रमाण चर्चा के प्रसंग में भी इसमें समवायांग और नंदीसूत्र के समान चारों प्रमाणों की ही चर्चा की गई है। यह आगमिक युग (पाँचवीं शताब्दी
पूर्व) की ही अवधारणा है, क्योंकि दर्शनयुग में जहाँ सिद्धसेन दिवाकर तीन प्रमाणों की चर्चा करते हैं, वहीं अकलंक (आठवीं शताब्दी) छः प्रमाणों की चर्चा करते हैं। इसमें चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओ आदि के सन्दर्भ में जो विस्तृत विवरण मिलता है, वह षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुरूप है। दिगम्बर विद्वान पंडित हीरालाल शास्त्री जीवसमास को षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का आधार रूप ग्रन्थ माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ षट्खण्डागम • और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका से पूर्ववर्ती है। इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की उपस्थिति को देखकर डॉ. सागर जैन इसे पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं, किन्तु हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ इससे प्राचीन हो सकता है। चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के पश्चात् हुआ है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र का काल भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न माना है। उसे प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी तक का माना जाता है, किन्तु यदि तत्त्वार्थसूत्र को पहली दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ माना जाता है, तो षट्खण्डागम को तीसरी शताब्दी का ग्रन्थ माना जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार, पूर्वधरीं की परम्परा महावीर निर्वाण छः सौ तिरयासी (६८३) वर्ष अर्थात् ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी तक चलती
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