________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{60} गुणस्थान के रूप में नहीं। यद्यपि टीकाकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने गाथाओं की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश करते हुए यह कहा है कि सूक्ष्मलोभांश जिस चारित्र में रहता है, वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है। उन्होंने पुनः इस सूक्ष्मसंपराय के दो भेद किए हैं-विशध्यमान और संकिलश्यमान। यह बताया है कि क्षपकश्रेणी से अथवा उपशमश्रेणी से ग्यारहवें। गुणस्थान की ओर जाते हुए विशुध्यमान चारित्र होता है, परन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करके ग्यारहवें गुणस्थान से पुनः पतित होकर दसवें गुणस्थान में आते हए पनःसंकिलश्यमान चारित्र होता है, इसप्रकार मलधारी टीका में तो यहाँ गणस्थान सम्बन्धी चर्चा परिलक्षित होती है, किन्त मुलगाथाओं में गणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत हमें उपलब्ध नहीं होता है। यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि जहाँ सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से केवल सूक्ष्मलोभ की सत्ता मानी गई है, वहीं आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने गाथा क्रमांक १२७७ में स्पष्ट रूप से क्रोधादि कषायों के सूक्ष्म अवशेष को भी सूक्ष्मसंपराय कहा है और यह माना है कि सूक्ष्मसंपराय चारित्र में क्रोधादि कषाएँ सूक्ष्मरूप से अवशिष्ट रहती हैं।
विशेषावश्यकभाष्य में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरोहण करता हआ जीव किस क्रम से कर्मप्रकतियों का क्षय करत है इसकी विस्तत चर्चा की गई है, (गा. १२८५ से १२६३) इस चर्चा में उपशान्तकषाय का भी उल्लेख हआ है, (गा. १३०६), किन्तु यहाँ उपशान्तकषाय का सम्बन्ध उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान से जोड़ना समुचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि कर्मप्रकृतियों के क्षय, उपशम की इस चर्चा में कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख हमें दृष्टिगत नहीं हुआ है। यद्यपि यह अवश्य कहा गया है कि दर्शनमोह का क्षय होने पर निवृत्तिबादर कहलाता है और संज्वलन लोभ का संख्यातवाँ भाग अनिवृत्तिबादर कहलाता है। इस संख्यातवें भाग लोक के असंख्यात भाग करने पर असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर सुक्ष्मसंपराय कहा जाता है। इस असंख्यातवें भाग के भी क्षय होने पर साधक क्षपक निर्ग्रन्थ कहलाता है। उसके पश्चात् छद्मस्थ काल के दो चरम समय शेष रहने पर निद्रा और प्रचला का क्षय करके वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है. (गा १३३० से १३३३)। इस चर्चा से स्पष्टतया ऐसा लगता है कि यहाँ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण निवृत्तिबादर, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, क्षपक निर्ग्रन्थ और केवली (सयोगी केवली) गुणस्थान की चर्चा कर रहे हैं, फिर भी यह आश्चर्य है कि यहाँ उन्होंने कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं किया है। यह प्रश्न विद्वानों के लि
तणे
विशेषावश्यकभाष्य की विषयवस्तु का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें सर्वप्रथम मंगल के स्वरूप की चर्चा की गई है। उसके पश्चात उसमें लगभग ३०० गाथाओं में पंच ज्ञानों की चर्चा है। उसके पश्चात विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर आवश्यक और सामायिक शब्द की व्याख्या की गई है। इसके पश्चात् तीर्थ की व्याख्या करते हुए द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ के रूप में विचार किया गया है। उसके पश्चात् पाँच प्रकार के चारित्र का वर्णन किया गया है और यहाँ किन कषायों की उपस्थिति में किन चारित्रों का अभाव होता है, इसकी भी चर्चा की गई है। उसके पश्चात् गणधरवाद में ग्यारह गणधरों, उनकी शंकाओं
और उनके निरसन के सम्बन्ध में विस्तार से विचार हुआ है। तदनन्तर जैन तत्वज्ञान और नय-निक्षेप आदि की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी क्रम में जमाली आदि निह्नवों का और उनके मतों के निरसन सम्बन्धी विवेचन है। निह्नवों की इस चर्चा के अन्त में दिगम्बर मत की उत्पत्ति के प्रसंग में शिवभूति सम्बन्धी कथानक है। अन्त में अर्हन्त, सिद्ध आदि की चर्चा करते हुए पुनः सामायिक पद की व्याख्या उपलब्ध है। इस समग्र विषयवस्तु का अवलोकन करने से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध नहीं है। यह भी विचारणीय विषय है कि इस ग्रन्थ में केवली समदघात की चर्चा करते हए गणश्रेणी की भी चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ में भी दो स्थल अवश्य ऐसे हैं, जहाँ गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की जा सकती है। प्रथम, पाँच प्रकार के चारित्र और उन चारित्रों में बाधक कषायों की चर्चा का प्रसंग और दूसरा, पूर्वोक्त केवली समुद्घात का प्रसंग, किन्तु हमें यह आश्चर्य है कि ग्रन्थकार ने यहाँ भी गणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं की है। जहाँ तक ग्रन्थकार अवलोकन कर सके. वहाँ तक हमें उसमें न तो गुणस्थान शब्द का उल्लेख प्राप्त हुआ और न ही गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध हुई। आश्चर्य का विषय
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org