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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{61} यह है कि विशेषावश्यकभाष्य के रचनाकाल तक गुणस्थान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा प्रारम्भ हो गई थी। दिगम्बर परम्परा में षटखण्डागम, पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका और श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास आदि ग्रन्थ गुणस्थान की चर्चा कर रहे थे, फिर भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस आकर ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा क्यों नहीं की, यह जिज्ञासा का विषय बना रहता है। गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को विद्वानों के अनुसार चाहे कितना ही परवर्ती माने, किन्तु यह तो निश्चित है कि विशेषावश्यकभाष्य की रचना के पूर्व यह चर्चा अस्तित्व में थी। हमारी दृष्टि में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की अपेक्षा का एक ही कारण प्रतीत होता है, वह यह कि उनका यह ग्रन्थ मूलतः आवश्यक नियुक्ति की व्याख्या रूप ही था
और आवश्यक नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव होने से उन्होंने भी उसकी कोई चर्चा न की हो। उपलब्ध आवश्यक नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी दो गाथाएँ अवश्य मिलती हैं, किन्तु हरिभद्रसूरि की टीका में इन्हें संग्रहणी की गाथा के रूप में ही उद्धृत किया गया है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समक्ष जो आवश्यक नियुक्ति उपलब्ध रही होगी उसमें इन गाथाओं का अभाव ही रहा होगा। यदि आधार ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं हो, तो व्याख्या ग्रन्थ में उस चर्चा का अभाव आश्चर्यजनक नहीं है। आगे सत्य तो केवली गम्य है।
चूर्णिसाहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त र
आगमिक व्याख्याओं के रूप में नियुक्ति और भाष्यों के पश्चात् चूर्णियाँ लिखी गई है। जहाँ नियुक्ति और भाष्य प्राकृत पद्यों में लिखे गए हैं, वहीं चूर्णियाँ प्राकृत या संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में तथा गद्यों में लिखी गई है। चूर्णि शब्द का तात्पर्य यह है कि वर्ण्य विषय को अधिक स्पष्टता के साथ और उदाहरण सहित समझाना। नियुक्तियों की अपेक्षा भाष्य और भाष्य की अपेक्षा चूर्णियाँ अधिक विस्तृत है। इनमें प्रत्येक विषय को विस्तारपूर्वक एवं उदाहरण सहित समझाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियाँ एवं भाष्य सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं मिलते हैं, उसी प्रकार चूर्णियाँ भी सभी आगम ग्रन्थों में नहीं मिलती है। फिर भी जहाँ नियुक्तियाँ दस आगम ग्रन्थों पर लिखी गई है, वहीं चूर्णियाँ अठारह आगम ग्रन्थों पर लिखी गई है। हमें निम्न आगम ग्रन्थों पर चूर्णियाँ लिखी जाने की सूचना प्राप्त होती है- (१) आचारांगचूर्णि (२) सूत्रकृतांगचूर्णि (३) भगवतीचूर्णि (४) जीवाजीवाभिगमचूर्णि (५) जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णि (६) दशाश्रुतस्कंधचूर्णि (७) बृहत्कल्पचूर्णि (८) व्यवहारचूर्णि (६) निशीथचूर्णि (१०) महानिशीथचूर्णि (११) उत्तराध्ययनचूर्णि (१२) दशवैकालिकचूर्णि (१३) नंदीचूर्णि (१४) अनुयोगद्वारचूर्णि (१५) आवश्यकचूर्णि (१६) जीतकल्पचूर्णि (१७) पंचकल्पचूर्णि और (१८) ओघनियुक्तिचूर्णि । इस प्रकार हम देखते हैं कि चूर्णियों की संख्या नियुक्ति और भाष्य से अधिक है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा है चूर्णियाँ प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है। यद्यपि दशवैकालिकचूर्णि आदि कुछ चूर्णियों में प्राकृत को ही प्रमुखता दी गई है, फिर भी यथाप्रसंग संस्कृत के श्लोक एवं उदाहरण तो उनमें भी है।
___ जहाँ तक चूर्णिकारों का प्रश्न है, उनमें अगस्त्यसिंहसूरि, जिनदासगणि महत्तर, सिद्धसेनसूरि, प्रलंबसूरि आदि प्रमुख है। अगस्त्यसिंहसूरि की दशवैकालिकचूर्णि सबसे प्राचीन मानी जाती है। अगस्त्यसिंहसूरि कोटिक गण और व्रजी शाखा में हुए हैं। इनके गुरू का नाम ऋषिगुप्त है। अगस्त्यसिंहसूरि की दशवैकालिकचूर्णि में तत्त्वार्थसूत्र के अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। इस अपेक्षा से वे उमास्वाति के बाद कभी हुए होंगे। उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शताब्दी का माना जाता है। अतः इनका काल चौथी-पाँचवीं शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। चूर्णिकारों में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति जिनदासगणि महत्तर है। जिनदासगणि ने सूत्रकृतांगचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, नंदीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथविशेषचूर्णि और आवश्यकचूर्णि लिखी है। परम्परा के आधार पर जो कुछ सूचनाएँ मिलती हैं, उससे यह निश्चित होता है कि ये कोटिकगण, व्रजी शाखा और वाणिच्य कुल के थे। इनके गुरु का नाम गोपालगणि महत्तर और विद्या गुरु का नाम प्रद्युम्न क्षमाश्रमण था। इनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी के लगभग है।
जिनदासगणि महत्तर के पश्चात् चूर्णिकारों में सिद्धसेनसूरि और प्रलंबसूरि के नाम आते है। इनका काल लगभग
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