SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ द्वितीय अध्याय....{62} ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी होना चाहिए, क्योंकि तेरहवीं शताब्दी में इनके ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी गई। इसप्रकार हम देखते हैं कि चूर्णियों की लिखने की परम्परा एक लम्बे काल तक चलती रही। श्वेताम्बर परम्परा में चौथी - पाँचवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चूर्णियाँ लिखी जाती रही । जहाँ तक दिगम्बर परपंरा का प्रश्न है, हमें कसायपाहुडसुत्त पर यतिवृषभ द्वारा चूर्णिसूत्र लिखे जाने की सूचना प्राप्त होती है। दिगम्बर परम्परा में अन्य किसी ग्रन्थ पर चूर्णियाँ लिखी गई हो, ऐसा हमें ज्ञात नहीं है । यतिवृषभ ने कसायपाहुडसुत्त पर चूर्णिसूत्र लिखे हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यतिवृषभ ने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के पश्चात् चूर्णिसूत्र लिखे हैं । मूल ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। मात्र गुणस्था सम्बन्धित कुछ नाम ही मिलते हैं, जबकि चूर्णिसूत्रों में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकचूर्ण को छोड़कर अन्य चूर्णियों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। हमारी दृष्टि में इसका कारण यह है कि जिन आगम ग्रन्थों पर चूर्णियाँ लिखी गई, उनमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव होने के कारण चूर्णिकारों ने भी उनकी कोई चर्चा नहीं की । यद्यपि सभी चूर्णियों का आद्योपान्त अवलोकन करना सम्भव नहीं था, इसके दो कारण रहे हैं - (१) ग्रन्थों की उपलब्धि का अभाव (२) चूर्णि साहित्य की विशालता । हमने विशेष रूप से चूर्णि साहित्य में केवल उन्हीं स्थलों को देखने का प्रयत्न किया है, जहाँ मूल ग्रन्थ के आधार पर उनकी सम्भावना हो सकती थी। हमें जो सूचनाएँ उपलब्ध हो सकी हैं, उसके आधार पर " आवश्यकचूर्णि” एक ऐसा ग्रन्थ उपलब्ध हुआ, जिसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का संतोषजनक विवरण है। अतः अग्रिम पृष्ठों में हम आवश्यकचूर्णि में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं । आवश्यकचूर्णि९२८ श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक व्याख्याओं में आवश्यकचूर्णि का महत्वपूर्ण स्थान है। आवश्यकचूर्णि मुख्यतः आवश्यकसूत्र की व्याख्या रूप है । इसके रचनाकार जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। विद्वानों की दृष्टि में इनका काल लगभग सातवीं शताब्दी माना गया है। इसमें प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन की चूर्णि लिखते हुए जिनदासगणि महत्तर ने चतुर्दश भूतग्राम की चर्चा के पश्चात् लिखा है कि अन्य कुछ आचार्य " चउदसहिं भूतगामेहि" सूत्र के स्थान पर " चउदस गुणठाणानि वि पन्नवेंति”, ऐसा पाठ स्वीकार करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि उनके काल में कुछ आचार्य चौदहवें बोल में चतुर्दश भूतग्राम ( जीवस्थान) के स्थान पर चतुर्दश गुणस्थानों की प्रज्ञापना करते थे। इस सम्बन्ध में उनका यह तर्क था कि चौदह गुणस्थान भी चौदह भूतग्राम या जीवस्थान ही है, क्योंकि जीव इनमें वर्तन करता है या रहता है। इस स्थान पर चूर्णिकार ने दो गाथाओं को उद्धृत किया है। ये दोनों गाथाएँ समवायांगसूत्र और आवश्यक निर्युक्ति में भी उल्लेखित है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि समवायांगसूत्र और आवश्यकनिर्युक्ति में ये दोनों गाथाएँ संग्रहणी सूत्र से उद्धृत की है । आवश्यक निर्युक्ति की हरिभद्र टीका में स्पष्ट रूप से इन्हें संग्रहणी गा गया है।१२* निर्युक्ति संग्रह में भी इन्हें संग्रहणी कहकर उद्धृत किया गया है। ३८ आवश्यक चूर्णिकार जिनदास गणि महत्तर ने निम्न चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया है- (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (२) सास्वादन गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ( ४ ) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( ५ ) विरताविरत गुणस्थान ( ६ ) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ( ८ ) निवृत्ति-नियट्टी (मिथ्यात्व मोह) गुणस्थान (६) अनिवृत्ति (बादर कषाय ) गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसंपराय (सुहुम संपराय) गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान ( १२ ) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान। उसके पश्चात् चूर्णिकार ने लगभग तीन पृष्ठों में इन चौदह गुणस्थानों की व्याख्या की । सर्वप्रथम मिध्यादृष्टि गुणस्थान की व्याख्या करते बताया है कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के होते हैं - अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि और अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि । यहाँ चूर्णिकार ने १२८ आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणिमहत्तर, ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम. सं. १६२६, उत्तरभाग, पृ. १३३-१३६. १२६ आवश्यक निर्युक्ति, हरिभद्रीवृत्ति, भाग-२, प्र. भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, पृ. १०६-१०७. १३० निर्युक्ति संग्रह - हर्षपुष्पामृत ग्रन्थमाला, लाखाबावल, पृ. १४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy