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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{63} अभिगृहीत मिथ्यादृष्टियों में सांख्यों, आजीवकों, बौद्धों एवं निह्नवों और बौटिक आदि विचारकों की गणना की है, वहीं अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय- उन जीवों को बताया है, जो किसी दार्शनिक परम्परा से बद्ध नहीं है। जो किसी धर्म-दर्शन को मानते हैं, उनका मिथ्यात्व अभिगृहीत है। सास्वादन गुणस्थान की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि जिनवचन में जिसकी ईषत् रुचि हो अथवा जो उपशम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर जा रहा हो (किन्तु मिथ्यात्व का ग्रहण न किया हो) अथवा जैसा कोई पुरुष पुष्प-फल आदि से समृद्ध ऊँचे वृक्ष से प्रमाद दोष के कारण गिरता हुआ, जब तक धरणी तल को प्राप्त नहीं होता हो, उसके बीच का जो अन्तराल काल है, ऐसा ही सम्यक्त्व मूलक जिनवचनरूपी कल्पद्रुम से मिथ्यात्व की ओर संक्रमण करता हुआ, जब तक जीव मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता तब तक छः आवलिका परिमाण काल सास्वादन गुणस्थान को होता है, अथवा जो सम्यक्त्व का आस्वाद ले रहा है, वह सास्वादनसम्यग्दृष्टि है । इस सम्बन्ध में जिनदासगणि महत्तर ने निम्न नियुक्ति गाथा भी उद्धरित की है - उवसमसमा पऽसाणओ तु मिच्छत्त संकमण काले । सासाणो छावलीओ भूमिमपत्तोव्व पडमाणो ।। अर्थात् उपशम सम्यक्त्व से गिरते हुए मिथ्यात्व तक पहुंचने का संक्रमण काल जो छः आवलिका परिमाण समय होता है, वह सास्वादन गुणस्थान का है। जिस प्रकार वृक्ष से गिरता हुआ जीव जब तक भूमि को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार उपशम सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, उसके बीच का संक्रमण काल सास्वादन गुणस्थान है। तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नियमतः पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय संसारी जीवों को होता है। ये जीव प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ही प्रशस्त अध्यवसायों के परिणामस्वरूप मिथ्यात्वमोह कर्म के पुद्गलों को तीन भागों में विभाजित करते हैं। यथामिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व। इस सम्बन्ध में कोद्रव का दृष्टांत दिया गया है। वे मादक कोद्रव जिनको धोकर उनकी मादक शक्ति को कम नहीं किया गया है, वे अधिक नशा देते हैं, किन्तु जिन मादक कोद्रवों को एक बार धोकर उनकी मादक शक्ति को मंद कर दिया गया है, उनका नशा अल्प होता है, वे मादक कोद्रव जो विशिष्ट प्रकार के जल से तीन बार धो दिए गए हैं, उनकी मादकता समाप्त हो जाती है और उनसे मधुर भात बनता है। इसीप्रकार से जीव मिथ्यात्व आदि भाव से उपचित होने पर शुभ अध्यवसायों के द्वारा मिथ्यात्व के जनक अशुभ अध्यवसायों को धोकर उन्हें तीन प्रकार का बना देता है-मिथ्यात्वमोह, सम्यग्मिथ्यात्व मोह और सम्यक्त्व मोह।। यहाँ जीव मिथ्यात्व का उदय होने पर उसे सम्यग्मिथ्यात्व के रूप में परिणमित कर देता है और उसे जिनवचन के प्रति श्रद्धा-अश्रद्धा का भाव जगाता है। यह अवस्था अन्तर्मुहुर्त तक बनी रहती है। उसके पश्चात् वह या तो सम्यक्त्व में परिणमन कर देता है या मिथ्यात्व में परिणमन कर देता है। इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व नामक गुणस्थान में जीव को जिनवचनों के प्रति न तो पूर्णतः श्रद्धा का भाव रहता है और न ही पूर्णतः अश्रद्धा का भाव रहता है। चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति में महाव्रत अथवा अणुव्रत को ग्रहण नहीं करके क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होती है। वे जीव अविरतसम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं। उनका सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है। अभिगम सम्यक्त्व और निसर्ग सम्यक्त्व। इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-ऐसे नौ पदार्थों का जहाँ सीमित सम्यग्ज्ञान होता है, उसे अभिगम सम्यक्त्व कहते हैं। निसर्ग नाम स्वभाव का है। अभिगम में अध्ययन आदि के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। निसर्ग में स्वाभाविक रूप से ही जीव ज्ञान को प्राप्त होता है। यहाँ जिनदासगणि महत्तर ने निसर्ग सम्यक्त्व का एक दूसरा ही उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि श्रावक के पुत्र नाति आदि कुल परम्परा से ही निसर्ग सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं। जैसे स्वयंभूरमण समुद्र में रहे हुए मत्स्य जिनप्रतिमा के आकार के मत्स्य, साधु के आकार के मत्स्य, पद्म के आकार के मत्स्य आदि को देखकर कर्मों के क्षयोपशम से निसर्ग सम्यक्त्व प्राप्त होता है और उसी के कारण जहाँ रहे हुए वे तेइन्द्रिय जीव देवलोक प्राप्त करते हैं। उनको जो सम्यक्त्व होता है, वह निसर्ग सम्यक्त्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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