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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.
द्वितीय अध्याय........{64} विरताविरत नामक पंचम गुणस्थान में मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यच जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त शरीर को प्राप्त है, मूल अथवा उत्तर गुणों को आंशिक रूप से प्रत्याख्यान कर इस अवस्था को प्राप्त करते हैं। जो महाव्रत को स्वीकार करते हैं, वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान दो प्रकार के कहे गए हैं- कषाय प्रमत्त और योगप्रमत्त। जो क्रोध-लोभ आदि कषायों के वशीभूत है, वे कषायप्रमत्त है और जो मन-वचन काया की प्रवृत्ति में सावधान नहीं है अथवा मन-वचन और काया के द्वारा दुष्प्रवृत्ति करता है अथवा जो इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त है और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त होकर इन्द्रियों के विषय के सेवन में शमित भाव वाला नहीं है और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त बना हुआ है, अथवा आहार-उपधि आदि के प्रति जिसके मन में आसक्त भाव है और इसके सम्बन्ध में उद्गम -उत्पादन आदि दोषों का निवारण नहीं करते है, वह योगप्रमत्त कहलाता है। कषाय अप्रमत्त क्षीणकषाय है, अथवा कषायों पर अपना अधिकार रखे हुए हैं, वह कषाय अप्रमत्त है। पंच समितिओं द्वारा जो उदय को प्राप्त क्रोधादि का निरोध कर उनकी फल देने की शक्ति को नष्ट कर देता है, वह योग अप्रमत्त कहलाता है। योग अप्रमत्त अपनी इन्द्रियों का अथवा राग-द्वेष आदि विषयों का निग्रह करता है। ऐसा योग अप्रमत्त जीव मोहनीय का क्षय या उपशमं करता है। इस गुणस्थान में रहा हुआ जीव हास्य-रति-अरति आदि नौ कषायों के उदय को छेद नहीं कर पाता है। अतः अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कर पुनः अन्य गुणस्थानों में प्रवेश कर जाता है।
निवृत्तिकरण (दर्शनमोह) जब जीव मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करता है, ऐसा अप्रमत्तसंयत बाद में प्रशस्त अध्यवसायों में विहरण करता हुआ मोहनीय कर्म को क्षय करता है या उपशमित करता है, किन्तु तब तक उसके हास्य-रति-अरति-शोक-भय-दुर्गछा आदि भावों का छेद न होकर उदय बना रहता है, ऐसे अणगार भगवान अन्तर्मुहूर्त काल के लिए निवृत्तकरण (दर्शनमोह) कहे जाते हैं।
___ अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा प्रशस्त अध्यवसायों में वर्तन करता हुआ जीव हास्यषट्क का क्षय कर देता है, किन्तु जब तक माया के उदय का छेद नहीं होता है, तब तक इस अवस्था में वर्तमान में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, उसे अनिवृत्तबादरसंपराय कहते है।
सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में, जब तक मुनि सूक्ष्म राग भाव के उदय के कारण आयुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों की मूलप्रकृतियों का शिथिल बन्ध करता है, जो अल्पकाल की स्थिति का होता है, जिसका अनुभाग भी मंद होता है। ऐसा साधक अपने सूक्ष्म राग के कारण सूक्ष्मसंपराय कहा जाता है। यह विशुद्धमान आत्म परिमाण के कारण अन्तर्मुहूर्त काल तक इस अवस्था में रहकर या तो ऊपर के गुणस्थान में आरोहण कर जाता है या नीचे गिर जाता है।
उपशान्त मोहनीय कर्म की जो अट्ठाईस प्रकृतियाँ बताई गई हैं, वे सभी जब उपशान्त हो जाती है और उनमें से किंचित् मात्र वेदन नहीं रहता है, उस अवस्था को उपशान्तमोह गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान से व्यक्ति चाहे आंशिक रूप से पतन को प्राप्त करे या सर्वथा पतन हो, किन्तु नियम से अवश्य पतित ही होता है।
क्षीणमोह नामक गुणस्थान में जब कर्मों का नायक मोहनीय कर्म, पूर्णतया या निरवशेष रूप से समाप्त हो जाता है, तब यह गुणस्थान प्राप्त होता है। यहाँ नियम से आत्मा का परिणाम विशुद्धमान ही होता है और व्यक्ति अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
सयोगीकेवली नामक गुणस्थान में जिस केवलज्ञानी के मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ अर्थात् योग अवशिष्ट है, वह सयोगीकेवली कहलाता है। धर्मकथा, शिष्यों का अनुशासन एवं प्रश्नों के व्याकरण के निमित्त से उसकी वचनयोग की प्रवृत्ति होती है। बैठने, सोने, खड़ा होने, उद्वर्तन, परिवर्तन विहार आदि के निमित्त से उसे काययोग कहा गया है। मनोयोग की प्रवृत्ति विकल्प से पर के कारण होती है, जैसे अनुत्तरविमान के देव अथवा अन्य देव और मनुष्यों के द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न या संशय के निराकरण के लिए उन्हें मनोयोग की प्रवृत्ति होती है। वे मन प्रायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करके, उनका परिणमन करके, मन से ही उनका निराकरण या व्याकरण करते हैं। इसप्रकार से अनुत्तर आदि के मनोवर्गणा के पुद्गलों को जान करके, मन से ही उनके
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