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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
द्वितीय अध्याय.....{65} संशयों का निराकरण होता है, अन्यथा उनका मन से कोई प्रयोजन नहीं है। कारण के होने पर भी उनके मन की प्रवृत्ति होती है, अन्यथा उनका निषेध ही रहता है। तात्पर्य यह है कि केवली को स्वतः की अपेक्षा से मन की प्रवृत्ति करने का कोई प्रयोजन नहीं होता है !
अयोगकेवली गुणस्थान तब होता जब आत्मा शैलेशी अवस्था को प्राप्त होती है। वह तीनों योगों से रहित होकर “कखगघङ” इन पांच हस्व अक्षरों के उच्चारण के परिमित काल तक अयोगी केवली रहती है और तदुपरांत सर्व कर्मों से विमुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करती है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकसूत्र के प्रतिक्रमण नामक अध्ययन की चूर्णि करते हुए चौदह गुणस्थानों के लक्षण का अपेक्षाकृत विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। इसके पूर्व आगमों में, समवायांग सूत्र में तथा आवश्यक निर्युक्ति में चौदह गुणस्थानों के नाम सम्बन्धी गाथाएँ मात्र उपलब्ध होती हैं। उनके सम्बन्ध में भी विद्वानों की यह मान्यता है कि इन दोनों स्थानों पर ये गाथाएँ संग्रहणीसूत्र से अवतरित की गई है । उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में भी कहीं गुणस्थानों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी ने और श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि ने सर्वप्रथम गुणस्थान का उल्लेख किया है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर साहित्य में जीवसमास ही मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें गुणस्थानों का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण है, इसप्रकार हम देखते हैं कि समवायांग, जीवसमास, आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आगमों की टीकाओं में और तत्वार्थ की सिद्धसेनगणि टीका में श्वेताम्बर आचार्यों ने गुणस्थानों का उल्लेख किया है। आगे हम आगमों की टीका में गुणस्थानों का उल्लेख किस रूप में है, इसकी चर्चा करेंगे ।
आगमिक टीकाएँ और गुणस्थान सिद्धान्त
आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि के पश्चात् टीकाओं और वृत्तियों का क्रम है । टीकाएँ प्रायः संस्कृत भाषा में ही लिखी गई है, फिर भी कुछ टीकाएँ प्राकृत भाषा में भी उपलब्ध होती है। यद्यपि प्रथमतः हमने यह सोचा था कि संस्कृत साहित्य के ग्रन्थों की चर्चा के प्रसंग में ही टीका ग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का उल्लेख किया जाए, किन्तु टीकाएँ तो आगमों से सम्बन्धित ही है, अतः आगम साहित्य और उनके प्राकृत व्याख्या साहित्य के साथ ही आगमिक टीका साहित्य में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं की चर्चा करने का निर्णय किया है। आगमों पर टीकाओं का लेखन प्रायः आठवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि की अपेक्षा टीकाओं की विशेषता यह है कि उनमें अपनी परम्परा के आधार पर विषयों के विवेचन के साथ-साथ अन्य परम्परा की दार्शनिक एवं धार्मिक मान्यताओं की समीक्षा उपलब्ध होती है। टीकाएँ प्रायः दर्शनकाल में लिखी गई हैं और दर्शनकाल में समीक्षात्मक शैली प्रमुख रही है। अतः टीकाओं में भी समीक्षात्मक शैली पाई जाती है। आगमिक टीकाओं के पूर्व यद्यपि उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में तत्वार्थभाष्य और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञवृत्ति संस्कृत भाषा में लिखी थी, फिर भी संस्कृत भाषा में आगमिक टीका लिखने का प्रारम्भ आचार्य हरिभद्र से माना जाता है। आचार्य हरिभद्र ने मुख्यरूप से आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, नंदी और अनुयोगद्वार पर टीकाएँ लिखी है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में आचार्य शीलांक का नाम आता है। ये नवीं-दसवीं शताब्दी में हुए हैं। वर्तमान में इनकी आचारांग और सूत्रकृतांग पर टीकाएँ उपलब्ध होती है। आचार्य शीलांक के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में वादिवेताल शांतिसूरि का क्रम आता है। वादिवेताल शांतिसूरि का काल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है। इनके द्वारा लिखी गई उत्तराध्ययनसूत्र की टीका उपलब्ध है। इसके पश्चात् आगमिक टीकाकारों में नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि का नाम आता है। अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोड़कर शेष नौ अंग-आगमों पर टीका लिखी है, इसीलिए वे नवांगी वृत्तिकार के नाम से जाने जाते हैं। इनकी एक टीका औपपातिकसूत्र पर भी उपलब्ध होती है। अभयदेवसूरि
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