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- प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
द्वितीय अध्याय.....{66}
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के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में आचार्य मलयगिरि और मलधारी हेमचंद्राचार्य के नाम विशेषरूप से उल्लेखित है । मलयगिरि ने भगवतीसूत्र (द्वितीय शतक), राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नंदीसूत्र, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प और आवश्यकसूत्र पर टीकाएँ लिखी है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ अभयदेवसूरि ने अपने को औपपातिक के एक अपवाद को छोड़कर प्रायः अंग-आगमों की टीका तक सीमित रखा है, वहाँ मलयगिरि ने भगवती के द्वितीय शतक की टीका को छोड़कर, प्रायः अपने को अंगबाह्य आगमों तक सीमित रखा है । मलधारी हेमचंद्र ने आगम ग्रन्थों में अनुयोगद्वार, नंदी और आवश्यकसूत्र पर टीकाएँ लिखी है। उनमें भी अनुयोगद्वार की टीका वृत्ति रूप है, जबकि नंदी और आवश्यक पर मात्र इन्होंने टिप्पण ही लिखा है। जहाँ तक इन टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरणों के खोज का प्रश्न है, यह एक कठिन कार्य है। उसके दो कारण है- प्रथम तो यह है कि टीका साहित्य इतना विपुल है कि उस सब का आद्योपान्त अध्ययन सीमित समय में सम्भव नहीं है। दूसरा यह है कि जो प्रकाशित टीकाएँ है, वे भी सर्वत्र सहज रूप से उपलब्ध नहीं है । अतः आगमिक टीका साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की खोज के लिए हमें दीपरत्नसागरजी द्वारा प्रकाशित टीकाओं तक ही अपने को सीमित रखना पड़ रहा है। वैसे उन्होंने अधिकांश आगमों की टीकाएँ अपने संकलन में समाहित करने का प्रयास किया है, फिर भी कुछ टीका ग्रन्थ तो उनमें समाहित नहीं है। इन सब टीकाओं को भी आद्योपान्त पढ़ना सम्भव नहीं था, अतः हमने मुख्यरूप से, मूल आगमों के आधार पर, उन्हीं स्थलों को देखने का प्रयत्न किया है, जहाँ हमें गुणस्थान सिद्धान्त की संभावना प्रतीत हुई। इसीलिए यह सम्भव हो सकता है कि साहित्य में कुछ स्थल हमारी दृष्टि से ओझल रह गए हों। टीका ग्रन्थों में विशेषरूप से गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण हमें उपलब्ध हुआ है, वे आचारांग की शीलांक की टीका में, अभयदेव के समवायांगसूत्र के चौथे समवाय की टीका में तथा भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति में हैं। ये ऐसे स्थल हैं जहाँ टीकाकार ने गुणस्थान सिद्धान्त का संक्षिप्त, फिर भी एक समग्र विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
आचारांग की शीलांक की टीका में गुणस्थान
आगमिक टीकाओं में जहाँ तक अंग-आगमों की टीकाओं का प्रश्न है, उनमें प्राचीनतम टीका के रूप में आचारांग और सूत्रकृतांग पर आचार्य शीलांग की टीकाएँ उपलब्ध है। शेष नौ अंगों पर आचार्य अभयदेवसूरि की वृत्तियाँ उपलब्ध होती हैं । आचार्य शीलांग का काल लगभग नवीं शताब्दी के आसपास का माना जाता है, जबकि अभयदेव का काल लगभग दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी का है। यह तो स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य जिस काल में हुए, उस काल तक गुणस्थान सिद्धान्त अपनी सम्पूर्णता के साथ उपस्थित था, अतः आचार्य शीलांग और आचार्य अभयदेव गुणस्थान सिद्धान्त से अपरिचित हों, यह नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उन्होंने जिन आगम-ग्रन्थों पर अपनी टीकाएँ लिखीं, उनमें गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना अनुपलब्ध है। जैसा कि हम आगम साहित्य में गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में देख चुके हैं कि आगमों में चाहे गुणस्थान सिद्धान्त की सुव्यवस्थित चर्चा उपलब्ध न हो, उनमें गुणस्थानों के समरूप अवस्थाओं के उल्लेख तो अवश्य ही मिलते हैं। इन टीकाकारों ने भी यथाप्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी कुछ विवरण अवश्य प्रस्तुत किए हैं। आचार्य शीलांग ने अपनी आचारांग की टीका में अनेक स्थलों पर गुणस्थानों की चर्चा की है। इसी प्रकार आचार्य अभयदेवसूरि ने समवायांग के चौदहवें समवाय की टीका में चौदह ही का संक्षिप्त, किन्तु स्पष्ट विवेचन किया है।
गुणस्थान
आचारांग सूत्र पर अपनी वृत्ति में आचार्य शीलांग ने गुणस्थान सम्बन्धी विवरण कहाँ और किस रूप में प्रस्तुत किया है, इस सम्बन्ध में हम थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे। आचारांग सूत्र में असंयत, संयत, प्रमत्त और अप्रमत्त जैसी अवस्थाओं का उल्लेख बहुतायत से मिलता है। इन प्रसंगों को लेकर शीलांगाचार्य ने अविरति, देशविरति, सर्वविरति, असंयत, संयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थाओं का स्पष्टीकरण किया है । यद्यपि यह स्पष्टीकरण सर्वत्र गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं किया गया है, किन्तु शीलांग की टीका में कुछ प्रसंग अवश्य ऐसे हैं, जहाँ उन्होंने उपशम एवं क्षपक श्रेणी की दस गुणश्रेणियों की
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