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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{67}
तथा चौदह गुणस्थानों की चर्चा की है।३१ टीका में कुछ प्रसंग ऐसे भी हैं, जहाँ आचार्य शीलांग ने सम्पूर्ण गुणस्थानों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु गुणस्थान शब्द के स्पष्ट उल्लेख के साथ कुछ अवस्थाओं के निर्देश किए हैं। ३२ आचार्य शीलांग की टीका के तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक के सूत्र क्रमांक -१०६ की टीका में उन्होंने यह बताया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और सास्वादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का उदय रहता है। इसी प्रसंग में यह भी चर्चा की गई है कि स्त्यानगृद्धि आदि निद्रात्रिक का बन्ध और उदय किस गुणस्थान तक रहता है। निद्रा और प्रचला का उदय उपशमक और उपशान्तमोह वाले साधकों को रहता है,३३ किन्तु क्षीणकषाय गुणस्थान के द्विचरम समय में इन दोनों निद्रा और प्रचला का क्षय हो जाता है। इसी तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक की वृत्ति में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी का भी उल्लेख है। इसी क्रम में चारित्र मोहनीय की सत्ता किस जीवस्थान
और गुणस्थान में किस रूप में होती है, यह भी उन्होंने स्पष्ट किया है। यहाँ क्षपकों के सत्कर्मस्थानों की भी चर्चा है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के एक सौ पैतीसवें सूत्र की टीका में सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान का उल्लेख है'३५ आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के एक सौ सैंतीसवें सूत्र की वृत्ति में यह कहा गया है कि शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाने पर संयम और गुणस्थान का अभाव हो जाता है।
इसी क्रम में चतुर्थ अध्ययन के तृतीय उद्देशक के एक सौ सैतालीसवें सूत्र की टीका में जीवस्थानों और गुणस्थानों के उल्लेख के साथ-साथ उनमें कर्मप्रकृतियों के उदयस्थानों की भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय या ध्रुवोदय रहता है। इसीप्रकार इसी चतुर्थ अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के सूत्र एक सौ पचास की वृत्ति में सम्यग्दृष्टि आदि तथा अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों का निर्देश हुआ है।
.. आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक की टीका में यह चर्चा भी उपलब्ध होती है कि सम्यग्दर्शन के पूर्व की अवस्थाओं को गुणस्थान क्यों कहा जाता है? उन्हें गुणस्थान इसीलिए कहा जाता है कि उन अवस्थाओं में गुणों का आविर्भाव होता है। इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए यहाँ गुणश्रेणियों से सम्बन्धित आचारांग नियुक्ति की दो गाथाओं को उद्धृत करके उनकी टीका में इन अवस्थाओं की विस्तृत चर्चा की गई है और यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देशोन कोटाकोटि सागरोपम की कर्मस्थिति को छोड़कर शेष कर्मों की निर्जरा हेतु तीनों करणों को करते हुए ग्रंथिभेद करता है। इसी कारण मिथ्यात्व को भी गुणस्थान कहा गया है। आगे गुणश्रेणियों की किंचित् विस्तार के साथ चर्चा है। इसी चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त आदि के भी उल्लेख उपलब्ध हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि यह उल्लेख गुणस्थानों की अपेक्षा है, फिर भी चतुर्थ अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में कर्मों की निर्जरा की प्रक्रिया को बताते हुए सम्यग्दृष्टि, अपूर्वकरण, निवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों से सम्बन्धित अवस्थाओं का चित्रण करते हुए क्षपकश्रेणी द्वारा शैलेशी अवस्था की प्राप्ति का उल्लेख हुआ है।२६
पुनः आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के नवम उपधानश्रुत नामक अध्ययन में गुणस्थानों और गुणश्रेणियों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह भी बताया गया है कि साधक किस प्रकार कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम करता हुआ गुणस्थानों की इन विविध अवस्थाओं को प्राप्त करता है। इस चर्चा में सम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है। इस चर्चा में मिथ्यादृष्टि,
१३१ आगमसुत्ताणि सटीक भाग-१, आचारांगसूत्र मूलं एवं शीलांक विरचितावृत्ति; पृ. १८४ १३२ वही, पृ. १८०, १५३ १३३ वही, पृ. १५६ १३४ वही, पृ. १६३ १३५ वही, १७६ १३६ वही, पृ. १८४ १३७ वही, पृ. ३०४-३०७
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