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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{68} सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और उपशान्तमोह अवस्था का स्पष्ट चित्रण नहीं है, फिर भी टीकाकार ने यह चर्चा गुणस्थानों की अपेक्षा से ही की है, इसमें कोई मतभेद नहीं है। इस चर्चा में ध्यान की विविध अवस्थाओं को लेकर उनमें भी गुणस्थानों के अवतरण का प्रयास किया गया है। जहाँ तक आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के विविध अध्ययनों की टीका का प्रश्न है; उनमें असंयत, संयतासंयत और संयत अवस्थाओं के कुछ निर्देशों के अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। इन आधारों पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य शीलांक गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से ही नहीं गुणस्थानों के जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि के सहसम्बन्धों से भी सुपरिचित थे। साथ ही उन्होंने इस टीका में गुणश्रेणियों और ध्यानों की विविध अवस्थाओं को लेकर गुणस्थानों के अवतरण का प्रयत्न भी किया है। वैसे उनके द्वारा किया गया गुणस्थान सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि उनके काल में (लगभग नवीं-दसवीं शताब्दी) में गुणस्थानों की चर्चा के सन्दर्भ में जैन चिन्तकों में पर्याप्त जागरूकता थी। कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि की दिगम्बर टीकाओं में तथा गोम्मटसार जैसे ग्रंथों में यह चर्चा विस्तार के साथ हो रही थी। अतः आचार्य शीलांक जैसा प्रबुद्ध व्यक्तित्व अपनी टीकाओं में उनका उल्लेख न करे, यह कैसे हो सकता था। | समवायांगसूत्र की अभयदेव की वृत्ति में गुणस्थान ३८ ॥ समवायांगसूत्र के चौदहवें समवाय में कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों का उल्लेख हुआ है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मूल पाठ में कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, उन्हें जीवस्थान ही कहा गया है। यहाँ जो चौदह गुणस्थानों के नाम मिलते हैं, वे इसप्रकार है- (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान (५) विरताविरत गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) निवृत्तिबादर गुणस्थान (६) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसंपराय- उपशमक या क्षपक गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान । ग्रन्थकारों ने नामों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं किया है। यहाँ दो ही बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो यह कि इसमें गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीवठाण शब्द का उल्लेख हुआ है। दूसरी यह है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में इन्होंने, उपशामक और क्षपक- ऐसी दो स्थितियों का उल्लेख किया है। इसकी टीका में अभयदेवसूरि ने थोड़े विस्तार से प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि कर्म विशुद्धि मार्गणा के अन्तर्गत ज्ञानावरण आदि कर्मों की विशुद्धि की दृष्टि से यहाँ चतुर्दश जीवस्थानों का उल्लेख किया गया है। उन्हें जीवों के भेद भी कहा गया है। वे इस प्रकार हैं - (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- मिथ्यात्व मोहनीय के विशेष उदय के कारण व्यक्ति का जो मिथ्या या विपरीत दृष्टिकोण होता है, उसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। (२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान - जिसे अभी तत्त्वश्रद्धान के रस का आस्वादन बना हुआ है, वह सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। अनन्तानुबन्धीकषाय के उदय से जिसने सम्यक्त्व का वमन किया है, उसे फिर भी कुछ काल तक उसका आस्वादन बना हुआ रहता है, जैसे कि घण्ट के बजा देने के बाद भी कुछ समय तक उसमें ध्वनि तरंगे बनी रहती हैं। उसका काल छ: आवलि माना गया है। यहाँ अभयदेवसूरि ने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य यह है कि उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर अभी मिथ्यात्व को जिसने प्राप्त नहीं किया है, उसका छः आवलिका अन्तराल काल सास्वादन सम्यक्त्व है। यह सम्यग्दर्शन से पतन की अवस्था में ही होता है। १३८ आगमसुत्ताणि सटीकं, भाग-४, समवायांगसूत्र मूलं + अभयदेवसूरि विरचितावृत्तिः समवाय -१४, पृ. ३५-३६, ४३-१४,५० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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