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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{69} (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान - दर्शन मोहनीय के विशेष उदय के कारण जिसकी दृष्टि न तो पूरी तरह सम्यक् है और न पूरी तरह मिथ्या है, ऐसा व्यक्ति सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। (४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-जिसने अभी देशविरति को भी स्वीकार नहीं किया, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अविरतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (५) विरताविरत गुणस्थान - जिसने आंशिक रूप से विरति स्वीकार की है, ऐसा श्रावक विरताविरत गुणस्थानवर्ती होता (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान - सर्वविरत मुनि, जिसमें अभी किंचित् प्रमाद अवशेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा जाता है। (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - सर्वतः प्रमाद से रहित मुनि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती होते हैं। (८) निवृत्तिबादर गुणस्थान - क्षपकश्रेणी अथवा उपशमश्रेणी का आश्रय लेकर, जिस जीव ने दर्शन सप्तक अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह त्रिक, ऐसी सात प्रकृतियों का पूर्णतः उपशम या क्षय कर दिया है, वह निवृत्तिबादर कहा जाता है। जिस गुणस्थान को समकाल में जीवों के अध्यवसायों में प्रधानतः भेद रहता है तथा संज्वलन कषाय को छोड़कर अन्य कषायों से निवृत्ति हो जाती है, इसीलिए उसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं। (६) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान-इस गुणस्थान में संज्वलन कषाय चतुष्क तथा हास्य चतुष्क (हास्य-रति-भय-जुगुप्सा) इन आठ कषाय अष्टक का क्षपण प्रारम्भ करके, नपुंसक वेद का उपशमन करते हुए, स्थूल लोभ के आंशिक क्षपण या उपशमन के होने पर यह गुणस्थान होता है। संज्वलन स्थूल लोभ की पूर्णतया निवृत्ति न होने के कारण इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है। गुणस्थानों की चर्चा के इस प्रसंग में आठवें गुणस्थान के दो नाम ही उपलब्ध होते है- अपूर्वकरण गुणस्थान तथा निवृत्तिबादर गुणस्थान। इसके बाद नवें गुणस्थान का नाम सर्वत्र ही अनिवृत्तिबादर दिया गया है। चूंकि आठवें गुणस्थान की अपेक्षा नवें गुणस्थान में आत्मविशुद्धि अधिक है, अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आठवें को निवृत्तिबादर और नवें को अनिवृत्तिबादर क्यों कहा गया है। निवृत्ति का सामान्य अर्थ समाप्त हो जाना या निवृत्त हो जाना होता है। जैनाचार्यों ने यहाँ निवृत्ति को अर्थभेद कहा और इस अपेक्षा से यह अर्थ किया जाता है कि आठवें गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरूढ़ साधकों में आत्मविशुद्धि में परस्पर अन्तर या भेद होता है, जबकि नवें गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरुढ़ व्यक्तियों की आत्मविशुद्धि में परस्पर भेद नहीं होता है। इसमें सबकी विशुद्धि समान रूप से होती है, इसीलिए इसे अनिवृत्तिबादर कहा है। एक अन्य दृष्टि से डॉ. सागरमल जैन का मानना यह है कि निवृत्तिबादर, यह कथन मिथ्यात्वमोह की अपेक्षा से है, क्योंकि इस गुणस्थान में क्षायिक या औपशमिक सम्यग्दर्शन में बाधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मोहत्रिक का पूर्णतः उपशम या क्षय हो जाता है। अतः इसे दर्शनमोह की अपेक्षा से निवृत्तिबादर कहा है। इसके विपरीत नवें गुणस्थान को अनिवृत्ति बादर चारित्रमोह की अपेक्षा से कहा जाता है, क्योंकि उसमें संज्वलन कषाय चतुष्क स्थूल रूप से उपस्थित रहता है। इसप्रकार आठवें और नवें गुणस्थानों के नामकरण के सन्दर्भ में स्पष्टता होना आवश्यक है, अन्यथा सामान्य बुद्धिवाले व्यक्ति को भ्रम होना स्वाभाविक है। (१०) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - संज्वलन लोभ के असंख्यातवें भाग रूप, आंशिक या सूक्ष्म कषाय रहने के कारण, इसे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान कहा गया है। यह सूक्ष्म लोभ का अनुवेदक होता है। यह द्विविध कहा गया है- उपशमक या उपशमश्रेणी प्रतिपन्न। क्षपक अथवा क्षपक श्रेणी प्रतिपन्न। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान - जिस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा अनुदय रहता है, किन्तु उसकी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में बनी रहती है, उसे उपशान्तमोह गुणस्थान कहा जाता है। उसे उपशम वीतराग भी कहा गया है। यह गुणस्थान, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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