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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
द्वितीय अध्याय........{70) उपशमश्रेणी की समाप्ति पर, अन्तर्मुहूर्त के लिए होता है। फिर साधक यहाँ से गिर जाता है।
(१२) क्षीणमोह गुणस्थान - जिसने मोहनीय कर्म की सत्ता को पूर्णतः समाप्त कर दिया है, वह क्षीणमोह गुणस्थान है। इसे क्षय वीतराग भी कहते हैं। यह भी अन्तर्मुहूर्त का होता है।
(१३) सयोगीकेवली गुणस्थान - जिस केवल ज्ञानी के मन आदि के व्यापार रहे हुए हैं, वह सयोगी केवली कहा जाता है।
(१४) अयोगीकेवली गुणस्थान - जिसने मन आदि तीनों योगों का निरोध कर दिया है, जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त है, वह अयोगीकेवली गुणस्थान है। इसका काल पाँच हृस्व अक्षरों के उच्चारण काल के समान कहा गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समवायांगसूत्र, मूल और उसकी अभयदेवसूरि की टीका दोनों में गुणस्थानों के नाम के विवरण के अतिरिक्त गुणस्थानों के सन्दर्भ में विशेष कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। टीका का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें प्रत्येक गुणस्थान के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। दोनों में गुणस्थानों का जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि से सम्बन्ध नहीं बताया गया है और न ही इन गुणस्थानों की किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध-उदय-उदीरणा-सत्ता आदि होते हैं, इसकी कोई चर्चा नहीं
है।
भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति ३९ में गुणस्थान
गुणस्थानों के सदंर्भ में, आगमिक उल्लेखों की खोज में हमने यह पाया था कि समवायांग और भगवतीसूत्र में ही तत्सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं। समवायांग में स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों के नाम का जीवस्थान के रूप में उल्लेख है, अतः टीका साहित्य में भी हमने समवायांग में उस अंश की टीका को विशेषरूप से देखने का प्रयत्न किया और वहाँ हमें चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट विवरण मिला है, जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, उसमें गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट अवधारणा का तो अभाव है, किन्तु उसमें गुणस्थानों के वाचक अनेक नाम उपलब्ध हो जाते हैं। भगवतीसूत्र में इन विभिन्न अवस्थाओं का नाम-निर्देश, विभिन्न प्रसंगों में अलग-अलग हुआ है। सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की अपेक्षा की चर्चा में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- ऐसे तीन नाम प्राप्त होते हैं। इसीप्रकार विरत और अविरत चर्चा के प्रसंग में भी अविरत, विरताविरत और विरत- ऐसी तीन अवस्थाओं के नाम प्राप्त होते हैं। प्रमत्त और अप्रमत्त की चर्चा के प्रसंग में, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो नाम उपलब्ध होते हैं। तीन करणों की चर्चा के प्रसंग में, विशेषरूप से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-ऐसे दो नाम प्राप्त होते है। कषाय (संपराय) की चर्चा में, बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय- ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय और उपशम की चर्चा में उपशान्तमोह और क्षीणमोह-ऐसी दो अवस्थाओं के नाम प्राप्त होते हैं। इसीप्रकार केवली के सन्दर्भ में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं, किन्तु ये समस्त नाम अलग-अलग प्रसंगों में और अलग-अलग सन्दर्भो में ही पाए जाते हैं। जहाँ तक भगवतीसूत्र की टीका का प्रसंग है, उसमें भी स्वाभाविक रूप से इन अवस्थाओं के निर्देश मिल जाते हैं। भगवतीसूत्र की दीपरत्नसागरजी द्वारा सम्पादित अभयदेवसूरिजी की वृत्ति में गुणस्थान के सन्दर्भ में दो तरह के विवरण उपलब्ध होते हैं। एक वह है, जहाँ केवल अवस्थाओं के नाम निर्देश हैं और दूसरा वह है कि जहाँ गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश हुआ है। आगे हम इन दोनों की अलग-अलग चर्चा करेंगे।
जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त में वर्णित समरूप अवस्थाओं के चित्रण के उल्लेख का प्रश्न है, भगवतीसूत्र की टीका में इनक अनेक बार उल्लेख आया है। भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरि की वृत्ति में हमें मिथ्यादृष्टि४०, सम्यग्मिथ्यादृष्टि४१, सम्यग्दृष्टि४२
१३६ आगमसुत्ताणि सटीकं, भाग-५, भगवईसूत्र मूलं+ अभयदेव विरचितावृत्तिः । १४० आगम सुत्ताणि सटीक भाग-५, भगवती अंगसूत्रं मूलं + अभयदेवसूरि विरचितावृत्ति भाग-५, पृ. नं.-६६, भाग-६, पृ. २४१ १४१ वही, भाग-६, पृ. २४१. १४२ वही, भाग-५ पृ.नं.-९६
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