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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{71}
अविरत५३, देशविरत४४, संयतासंयत (विरताविरत), सर्वविरत४५, अपूर्वकरण१४६, अनिवृत्तिकरण'४७, सूक्ष्मसंपराय या सरागसंयत, उपशान्तकषाय४६ या उपशान्तमोह, क्षीणकषाय५०, वीतरागसंयत" या छद्मस्थवीतराग, सयोगीकेवली'५२ और अयोगीकेवली'५३ जैसे शब्दों का अनेकशः उल्लेख आया है। मात्र यही नहीं टीकाकार ने इन शब्दों के अर्थों को भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, फिर भी कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया इन शब्दों की व्याख्या या स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार ने गुणस्थान की कोई अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है। उदाहरण के रूप में भगवतीसूत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रमणोपासक को दान देने से क्या लाभ प्राप्त होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि वह दान देकर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रंथिभेद करता है, ग्रंथिभेद करके अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है। अन्त में सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। इसप्रकार यहाँ, यद्यपि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से न होकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि तीन करणों से ही है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के आठवें शतक के अष्टम उद्देशक की टीका में किन कर्मप्रकृतियों के कारण किन अवस्थाओं में कितने परिषह होते हैं, इसकी चर्चा है। यहाँ सरागछद्मस्थ, वीतरागछद्मस्थ, सयोगी केवली और अयोगीकेवली आदि अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु उन्हें गुणस्थानों के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है। भगवतीसूत्र के तेरहवें शतक के आठवें उद्देशक में ज्ञानावरणीय कर्म के जघन्यस्थितिबन्ध का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय वाला उपशमक अथवा क्षपक ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करता है। यहाँ पर सूक्ष्मसंपराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों ही स्थितियों को स्वीकार किया गया है, किन्तु इनका सम्बन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से है, ऐसा निश्चित करना कठिन है, क्योंकि यहाँ स्पष्ट रूप से गुणस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। यह कथन गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में भी हो सकता है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के २५ वें शतक के सप्तम उद्देशक में भी पाँच प्रकार के संयमों की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु वहाँ भी यह शब्द गुणस्थान से सम्बन्धित है, ऐसा टीकाकार ने कोई निर्देश नहीं किया है।
जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है कि भगवतीसूत्र के मूलपाठ में गुणस्थानों के समरूप अधिकांश अवस्थाओं का स्पष्ट नामनिर्देश है, किन्तु सम्पूर्ण मूलग्रन्थ में गुणस्थान शब्द का तथा सास्वादन अवस्था का अनुलेख यही सिद्ध करता है कि भगवतीसूत्रकार अपनी इन विवेचनाओं में गुणस्थान सिद्धान्त को प्रस्तुत नहीं कर रहा है।
किन्तु जहाँ तक टीका का प्रश्न है, यह निश्चित है कि टीकाकार गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित है। यह तो सत्य है कि भगवतीसूत्रकार के टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी कहीं भी एकसाथ चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का कोई चित्रण नहीं किया है, किन्तु टीका में अनेक स्थानों पर गुणस्थान शब्द का प्रयोग होने से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे। अभयदेवसूरि ने प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (भाग-२, पृष्ठ -५६) में 'प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्यात्' - ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक की टीका में भी 'उत्तमगुणस्थानकाद् हीनतरं गच्छेदित्यर्थः तथा न हि पण्डितत्वात्प्रधानतरं गुणस्थानकमस्ति'- ऐसे दो स्थानों पर गुणस्थान
१४३ वही, भाग-५, पृ.नं.-६६ १४४ वही, भाग-५, पृ. नं.-३८, ४०, ३६१, भाग-६ पृ. २४१ १४५ वही, भाग-५, पृ. ४० १४६ वही, भाग-५, पृ.३०८ १४७ वही, भाग-५ पृ.३०८ १४८ वही, भाग-५, पृ.५२,३०१ १४६ वही, भाग-५, पृ.५१,७३ १५० वही, भाग-५, पृ.७,१४,५१ १५१ वही, भाग-५, पृ.५१,५२, ३७६ १५२ वही, भाग-५, पृ. २३, २८१ १५३ वही, भाग-५, पृ. २८१, २८३, ३७६
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