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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{72} शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया है। इसीप्रकार दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक (भाग-५, पृष्ठ-१२१) में 'मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकानाम्'ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इससे भी यह निश्चित होता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित थे। इसी क्रम में भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के तृतीय उद्देशक की टीका (भाग -५, पृष्ठ -१६६) में अभयदेवसूरि ने प्रमत्त गुणस्थान के काल का निर्देश किया है। इसी टीका में आगे उन्होंने प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान के कहकर दोनों गुणस्थानों के संयुक्त काल की भी चर्चा की है। इसप्रकार टीका में यहाँ भी स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का निर्देश मिलता है। इसी क्रम में पाँचवें शतक के चतुर्थ उद्देशक की टीका में (भाग-५, पृष्ठ-२२५) उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की स्पष्टरूप से चर्चा मिलती है, यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का कोई स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है। छठे शतक के तृतीय उद्देशक की टीका में उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली को ईर्यापथिक बन्ध होता है- ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, यद्यपि यहाँ भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कर्मबन्ध से सम्बन्धित इस चर्चा में टीकाकार ने मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, सम्यग्दृष्टि, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली तथा केवली के अन्य रूपों यथा समुदघातकेवली आदि की भी चर्चा की है। यहाँ यह भी कहा गया है कि समुदघात केवली ईर्यापथिक बन्ध करता है, किन्तु अयोगी केवली ईर्यापथिक बन्ध नहीं करता है। फिर भी इस समस्त चर्चा में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। इसी छठे शतक के तृतीय उद्देशक की चर्चा के अन्त में अनिवृत्तिबादरसंपराय का भी स्पष्ट उल्लेख है। यद्यपि उसे भी गुणस्थान शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशिष्ट विवरण तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु कुछ स्थानों पर गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश होने से हम इतना अवश्य कह सकते है कि भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं। अभयदेवसूरि ने स्थानांगसूत्र से लेकर विपाकसूत्र तक नौ अंग-आगमों पर टीकाएँ लिखी हैं। इन नौ अंग-आगमों की टीका में समवायांग में गुणस्थानों की अवधारणा का स्पष्ट, किन्तु संक्षिप्त विवरण है। भगवतीसूत्र की टीका में भी यथाप्रसंग कुछ स्थलों पर उन्होंने गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश किया है। अन्य अंग-आगमों की टीका में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव ही परिलक्षित होता है, क्योंकि उन मूलग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। अतः अन्य आगमों की टीकाओं का हमने आंशिक रूप से ही आलोड़न किया है, क्योंकि उनमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की संभावना अल्पतम ही प्रतीत हुई है। . Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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