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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{59) उपलब्ध नहीं होती है। इस भाष्य में मुख्यतया दस प्रायश्चितों का विवरण प्रस्तुत करके यह बताया गया है कि किन परिस्थितियों में किए गए, कौनसे अपराध, किस और कितने प्रायश्चित के योग्य होते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में विविध उदाहरणों और देश, कालगत परिस्थितियों का चित्रण भी इस ग्रन्थ में मिलता है। इस ग्रन्थ के सामान्य अवलोकन के आधार पर हम यह पाते हैं कि इस ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त या उससे सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन नहीं हुआ है। इसकी गाथा २७६७ में इतना अवश्य कहा गया है कि भावों की विशुद्धि से मोहकर्म का अपचय होता है। मोहकर्म का अपचय होने से भावों की विशुद्धि होती है, किन्तु इस चर्चा का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त के साथ जोड़ना कठिन है। इसी प्रकार भरतक्षेत्र में कब, किसका विच्छेद हुआ, इसकी चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि केवली और चतुर्दश पूर्वधर के विच्छेद के साथ ही पारांचित प्रायश्चित का भी विच्छेद हुआ है, किन्तु यहाँ केवली शब्द का प्रयोग सयोगीकेवली या अयोगीकेवली गुणस्थान के सम्बन्ध में नहीं है। मुनि एवं गृहस्थ आदि के भी कुछ उल्लेख इसमें अवश्य है, किन्तु उनका सम्बन्ध देशविरति, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। इसप्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि व्यवहारभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना का अभाव है।
भाष्यसाहित्य में विशेषावश्यकभाष्य अति महत्वपूर्ण माना गया है। सामान्यतया तो यह आवश्यकसूत्र पर लिखा गया भाष्य है, किन्तु यदि इसकी विषयवस्तु को देखें तो यह जैनधर्मदर्शन का एक आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य के लेखक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है। इस ग्रन्थ की एक प्रतिलिपि जैसलपुर भण्डार में प्राप्त होती है। यह प्रतिलिपि जिसके आधार पर तैयार की गई है, वह शक संवत् ५३१ की है। इससे इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ लगभग ईसा की छठी शताब्दी के अन्त में लिखा गया होगा। इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञटीका के अतिरिक्त मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत वृत्ति भी उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ में मूल में तो गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही दिखाई देता है, किन्तु मूलग्रन्थ में कर्मों की स्थितियों की चर्चा के प्रसंग में मूलगाथाओं की टीका करते हुए मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने विविध गुणस्थानों की चर्चा अवश्य की है।
विशेषावश्यकभाष्य की ११८६ गाथा में सामयिक की चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि आठों कर्मों की कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के होने पर चार प्रकार की सामायिक में किसी की भी प्राप्ति नहीं होती है। टीका में इन चार प्रकार की सामायिकों का उल्लेख इन रूपों में हुआ है- सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक। यहाँ मूलगाथा में मात्र चार प्रकार के सामायिकों का उल्लेख है, गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु इसकी टीका में मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा को भी स्थान दिया है। इसी क्रम में आगे यह भी कहा गया है कि जब तक मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता रहता है, तब तक आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों का भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता रहता है, किन्तु जब आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति एक कोडाकोडी सागरोपम से कुछ न्यून होती है, तो चार में से एक सामायिक का लाभ प्राप्त होता है, अर्थात् वह सम्यक्त्व सामायिक को प्राप्त होता है। इसके पश्चात् सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्तरूप यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा हुई। यहाँ पर यद्यपि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण का उल्लेख है, वि. तु यह उल्लेख अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के सन्दर्भ में न होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति में होनेवाले त्रिकरणों के रूप में हुआ है।
मुलगाथाओं में गाथा क्रमांक ११२५ से १२३ में यह विचार किया गया है कि किन कषायों की सत्ता में कौनसा गण प्रकट नहीं होता है। वहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में सम्यग्दर्शन, अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में देशविरति, प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में सर्वविरति और सूक्ष्मकषायों के उदय में केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं होती है। यद्यपि यह चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत होती है, किन्तु इसे हम गुणस्थान सिद्धान्त की प्रारम्भिक अवस्था ही कह सकते हैं। यहाँ सुव्यवस्थित रूप से न तो गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है और न ही गुणस्थान विशेष के रूप में इन अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। पुनः इसी क्रम में गाथा क्रमांक १२६० में चारित्र के पाँच प्रकार की चर्चा हुई है। उसमें सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र का भी उल्लेख हुआ है। सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान ही है, किन्तु यहाँ सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख चारित्र के एक भेद के रूप में ही समझना चाहिए,
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