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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
द्वितीय अध्याय........{58} यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इन गुणश्रेणियों की चर्चा परवर्तीकाल में भी यथावत् होती रही है। मात्र यही नहीं, कालान्तर में इनकी संख्या दस से ग्यारह हो गई है। षट्खण्डागम की चूलिका में उद्धृत गाथा में तो यह संख्या दस ही थी, किन्तु षट्खण्डागम के मूल व्याख्यासूत्रों में यह संख्या ग्यारह हो गई है। इसमें दसवीं जिन नामक अवस्था में सयोग केवली संयत और योग निरोध केवली संयत ऐसे दो विभाग किए गए हैं। सयोग केवली संयत को यहाँ 'आधापवत्त केवली संजल' नाम दिया गया है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों गाथाएँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और गोम्मटसार तथा श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन और अर्वाचीन कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में भी मिलती है। इन दस अवस्थाओं और उनके अग्रिम विकास के तुलनात्मक अध्ययन को लेकर डॉ.सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' के प्रथम अध्याय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए विस्तृत चर्चा की है। हम उस चर्चा की गहराई में न जाकर यहाँ इतना संकेत करना ही पर्याप्त समझते हैं कि नियुक्ति साहित्य में आचारांग नियुक्ति की आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण करने वाली उपर्युक्त दो गाथाओं और आवश्यक नियुक्ति में संग्रहणीसूत्र से उद्धृत मात्र चौदह गुणस्थानों के नामों के उल्लेख करने वाली दो गाथाओं के अतिरिक्त गुणस्थान की अवधारणा को लेकर अन्य कोई विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं होता है ।
भाष्य साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त
नियुक्तियों के पश्चात् आगमिक व्याख्या साहित्य में भाष्यों की रचनाएँ हुई। नियुक्तियों की रचनापद्धति गूढ़ एवं संक्षिप्त थी, अतः उनके गूढ़ अर्थों को स्पष्ट करने के लिए उत्तरकालीन आचार्यों ने उन पर जो व्याख्याएँ लिखी वे भाष्य कहे गए। भाष्य भी नियुक्ति के समान ही प्राकृत भाषा में एवं पद्यों में लिखे गए। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भाष्य मुख्यतः नियुक्तियों को आधार बनाकर ही लिखे गए हैं, यद्यपि इनका आधार तो आगम ग्रन्थों से ही जोड़ा गया है। जिस प्रकार नियुक्तियाँ भी सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं है, उसी प्रकार भाष्य भी सभी आगम ग्रन्थों पर उपलब्ध नहीं है। भाष्य साहित्य के रूप में जो ग्रन्थ लिखे गए थे उनमें बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य, आवश्यकमूलभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, पंचकल्प महाभाष्य, उत्तराध्ययनभाष्य, दशवैकालिकभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य, जीतकल्पभाष्य, ओघनियुक्तिभाष्य और पिण्डनियुक्तिभाष्य। इस विपुल भाष्य साहित्य में जो भाष्य प्रकाशित हुए हैं, उनमें बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, उत्तराध्ययनभाष्य, जीतकल्पभाष्य और निशीथभाष्य ही प्रमुख है। निशीथभाष्य निशीथचूर्णि के साथ चार भागों में प्रकाशित हुआ हैं। इसीप्रकार बृहत्कल्पभाष्य भी छः खण्डों में प्रकाशित हुआ है। व्यवहारभाष्य का एक नवीन संस्करण लाडनूं से प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययनभाष्य और जीतकल्पभाष्य भी प्रकाशित है, किन्तु ये दोनों भाष्य आकार में संक्षिप्त है। उत्तराध्ययनभाष्य में तो मात्र पैंतालीस (४५) गाथाएँ है। जीतकल्पभाष्य भी संक्षिप्त ही है। इन दोनों भाष्य में हमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। बृहतकल्पभाष्य यद्यपि छः खण्डों में प्रकाशित है किन्तु ये छहों खण्ड हमें प्राप्त नहीं हो सके, इसीलिए इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की उपलब्धि या अनुपलब्धि को लेकर हम कोई चर्चा करने में असमर्थ ही है। बृहत्कल्पभाष्य में अनेक गाथाएँ व्यवहारभाष्य के समरूप है। व्यवहारभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा का अभाव है, अतः यही सम्भावना बृहत्कल्प भाष्य के सम्बन्ध में भी व्यक्त की जा सकती है। दूसरे, ये दोनों भाष्य बृहत्कल्प और व्यवहार नामक छेदसूत्रों पर हैं और छेदसूत्रों का विषय प्रायश्चित सम्बन्धी है, अतः इनमें गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा का अभाव हो, यह स्वाभाविक है।
मुनि दुलहराज ने बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य को विशेषावश्यक भाष्य की अपेक्षा प्राचीन माना है। वे व्यवहारभाष्य की भूमिका के रूप में लिखे गए अपने आलेख 'व्यवहारभाष्य एक अनुशीलन' में व्यवहारभाष्य को विशेषावश्यकभाष्य की अपेक्षा प्राचीन बताते हैं और इसका काल चौथी-पाँचवीं शताब्दी निश्चित करते हैं। उन्होंने इस भाष्य का जो विस्तृत विषयानुक्रम प्रस्तुत किया है, उसका अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस भाष्य में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा
१२७ व्यवहारभाष्य, संपादक, आ. महाप्रज्ञ, समणी कुसुमप्रज्ञा, प्रकाशक : जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (राज.)
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