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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........(108} चारों कषायवाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । लोभकषायवाले जीवों में सूक्ष्मसंपरायशुद्धि संयत उपशमक और क्षपक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । यद्यपि उपशान्तकषाय गुणस्थान में कषायों का उपशम रहने से उसे सर्वथा अकषाय नहीं कहा जा सकता है, परन्तु भाव कषायों के उदय का अभाव रहने से उसे भी अकषायी गुणस्थानों में ग्रहण किया है । ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत- अज्ञानियों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मति-अज्ञानवाले और श्रुत- अज्ञानियों का क्षेत्र सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । मनः पर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । केवलज्ञानियों में अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभाग में और सम्पूर्ण लोक में रहते हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयत जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत उपशमक और क्षपक जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । यथाख्यातशुद्धि संयतों में उपशान्तकषाय गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के चारों गुणस्थानवर्ती संयतों का क्षेत्र ओघ के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । असंयतों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अचक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि स्थान से लेकर क्षीण कषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । केवलदर्शनी जीवों का क्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान लोक का असंख्यातवाँ बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है। श्यामार्गणा की अपेक्षा कृष्णले श्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतले श्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । तेजोलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक ' गुणस्थानवर्ती शुक्लले श्यावाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । शुक्ललेश्यावाले सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धि के जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । अभव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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