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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{107} जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव का क्षेत्र सामान्य प्ररूपणा के समान है। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय तथा बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर तेजस्काय, बादर वायुकाय और बादर वनस्पतिकाय, प्रत्येक शरीरी जीव तथा इन्हीं पांच बादरकाय सम्बन्धी अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय और इन्हीं सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर तेजस्काय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येकशरीरी ये सभी पर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। बादर वायुकाय पर्याप्त जीव लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं। वनस्पतिकाय जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकाय बादर जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकाय बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। त्रसकाय और पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव का क्षेत्र ओघ निरूपित सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा के क्षेत्र के समान है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्त जीवों का क्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तों के समान है। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। काययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव को योग का अभाव हो जाने से उनका ग्रहण नहीं किया। काययोगवाले जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव का क्षेत्र ओघ प्ररूपित सयोगीकेवली के क्षेत्र के समान है । औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। औदारिक मिश्रकाय योगियों में मिथ्यादृष्टि जीव ओघ के समान सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। औदारिकमिश्रकाययोगी, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। वैक्रियकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। आहारककाययोगियों और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव ओघ मिथ्यादृष्टि जीवों के समान सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव प्रतर सुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें बहुभाग में और लोकपूरण की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। नपुंसकवेदी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । अपगतवेदी जीवों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेदभाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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