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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{106} संज्ञीमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों से कुछ अधिक हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। असंज्ञी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। काल की अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों के द्वारा समाप्त नहीं होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तानन्त लोक परिमाण हैं।
__ आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं । अनाहारक जीवों का द्रव्यपरिमाण कार्मणकाययोगियों के द्रव्यपरिमाण के समान हैं । अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है।
पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के क्षेत्रानुगम नामक तृतीय द्वार में सर्वप्रथम बताया गया है कि क्षेत्रानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघ अर्थात् सामान्य निर्देश की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहतें है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में अथवा लोक के असंख्यातवें बहुभाग परिमाण क्षेत्र में अथवा सम्पूर्ण लोक में रहते है, दण्डसमुद्घात को प्राप्त केवली सामान्य लोक आदि चारों लोकों के असंख्यातवें भाग तथा ढाई द्वीप सम्बन्धी क्षेत्र से असंख्यात में रहते हैं। कषाय समुद्घात प्राप्त केवली सामान्यलोक, अधोलोक और उर्ध्वलोक इन तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग तथा ढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र में रहते हैं। प्रतर समुद्घात प्राप्त केवली लोक के असंख्यात बहुभाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोकपूरण समुद्घात प्राप्त केवली समस्त लोक में रहते हैं।
आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथ्वीयों में नारकी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। तियंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्णलोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के तिर्यंच के जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यंच लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सामान्यवत् अर्थात् लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभाग परिमाण क्षेत्र में अथवा समस्त लोक में रहते हैं। लब्धि अपर्याप्त मनुष्य लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवलोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार भवनवासी देवों से लेकर ऊपर-ऊपर ग्रैवेयकविमानवासी देवों तक का क्षेत्र जानना चाहिए। नौ अनुदिशाओं से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान तक के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं।
इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव और उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त १८० षट्खण्डागम, पृ. ८५ से १००, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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