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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... तृतीय अध्याय........{109) सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ से कथित क्षेत्र के समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गणस्थान तक प्रत्येक गणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है। __ संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। असंज्ञी जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। __ आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी आहारक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । अनाहारक सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अनाहारक सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के बहुमाग और सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। प्रतरसमुद्घात को प्राप्त सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली भगवान लोक के असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि वे लोक के चारों ओर स्थित वातवलय को छोड़कर शेष समस्त लोक के क्षेत्र को पूर्ण करके स्थित होते हैं । तथा लोकपूरण समुद्घात में वे ही सयोगीकेवली जिन सम्पूर्ण लोक में रहते हैं, क्योंकि उस समय वे लोक को पूर्ण करके स्थित होते हैं । पुष्पदंत एवं भूतबलीप्रणीत षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के स्पर्शानुगमनामक चतुर्थ द्वार में कहा गया है कि स्पर्शानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघनिर्देश (सामान्य) और आदेशनिर्देश (विशेष)। सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रिय और मारणान्तिक समुदघात प्राप्त तथा उपपाद प्राप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव वर्तमान काल में सामान्तया लोक के असंख्यातवें भाग तथा मनुष्य लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतात काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। वर्तमान काल की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम करते हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात प्राप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि गणस्थानवी जीव वर्तमान काल में सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद को प्राप्त असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र क्षेत्र प्ररूपणा के समान जानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवाँ भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करते हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात प्राप्त १८१ षट्खण्डागम, पृ. १०१ से १२६, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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