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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{99} . द्वारा गेहूँ-चावल आदि मापे जाते हैं, उसी प्रकार से बुद्धि से लोक के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव राशि को मापने पर वह अनन्त लोक के बराबर है । तात्पर्य यह है कि लोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर मापने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तानन्त लोकपरिमाण है । भाव परिमाण की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण द्रव्य, क्षेत्र, काल इन तीनों परिमाणों का ज्ञान ही भाव परिमाण है। मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में से प्रत्येक ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र और काल के भेद से तीन प्रकार का है । इन तीनों में से द्रव्यों के अस्तित्व विषयक ज्ञान को द्रव्यभावपरिमाण, क्षेत्रविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को क्षेत्रभावपरिमाण और कालविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को कालभावपरिमाण जानना चाहिए। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग है । उनके द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम समाप्त होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा कोटिपृथक्त्व परिमाण है। कोटिपृथक्त्व तीन करोड़ से ऊपर और नौ करोड़ से नीचे की संख्या होती है । परमगुरु के आदेशानुसार प्रमत्तसंयत जीवों का परिमाण पांच करोड तिरानवे लाख अट्ठानवे हजार दो सौ छः है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है। यहाँ पर स्पष्ट जानना चाहिए कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान के काल से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल संख्यातगुणा हीन है। चारों गुणस्थानों के उपशमक जीव द्रव्यपरिमाण के प्रवेश की अपेक्षा एक अथवा दो अथवा तीन-इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से चौवन होते हैं, काल की अपेक्षा उपशम श्रेणी में संचित हुए सभी जीव संख्यात होते हैं। आठ समयों के भीतर उपशमश्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में उत्कृष्ट रूप से संचित हुए सम्पूर्ण जीवों को एकत्रित करने पर उनका परिमाण तीन सौ चार होता है । चारों गुणस्थानों के क्षपक और अयोगीकेवली जीवों का परिमाण प्रवेश की अपेक्षा से एक अथवा दो अथवा तीन-इस प्रकार उत्कृष्टरूप से एक सौ आठ होता है। आठ समय और छः महीनों के भीतर क्षपकश्रेणी के योग्य आठ समय होते हैं। उन समयों की सामान्य रूप से प्ररूपणा करने पर जघन्य से एक जीव और उत्कृष्ट से एक सौ आठ जीव क्षपक गुणस्थानों को प्राप्त होता हैं। काल की अपेक्षा संचित हुए क्षपक जीव संख्यात होते हैं। आठ समयों में संचित जीवों को एकत्रित करने पर वे उकृष्ट रूप से छ: सौ आठ होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव परिमाण प्रवेश की अपेक्षा एक, दो अथवा तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं । एक काल में सत्ता की अपेक्षा से सामान्यतया सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लक्षपृथक्त्व परिमाण होते हैं। विशेष की अपेक्षा से गति मार्गणा में नरकगति के नारकी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं, तात्पर्य यह है कि नरकगति में नारकी मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा मध्यम असंख्यातासंख्यात परिमाण हैं। काल की अपेक्षा नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा समाप्त हो जाते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सामान्यतया नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण और जगप्रतर असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं। उन जगश्रेणियों की विषकम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को उसी के द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या उपलब्ध होती है, उतनी ही है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती नारकी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। सामान्य नारकी जीवों के द्रव्यपरिमाण के समान पहली पृथ्वी के नारकीओं का द्रव्यपरिमाण जानना चाहिए। दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकीओं में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। कालपरिमाण की अपेक्षा दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा द्वितीयादि छहों पृथ्वियों में प्रत्येक पृथ्वी के नारक मिथ्यादृष्टि जीव जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। इस जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग की जो श्रेणी है, उसका आयाम असंख्यात कोटि योजन है, जिस असंख्यात कोटियोजन का परिमाण जगश्रेणी के संख्यात प्रथमादि वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने से जितना परिमाण उत्पन्न हो, उतना है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती नारकी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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