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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय ........{100}
तिर्यंचगति की अपेक्षा तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यंच सामान्य प्ररूपणा के समान अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा पंचेद्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों एवं उत्सर्पिणियों द्वारा गृहीत समयों से अधिक , तात्पर्य यह है कि जितने असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समय हैं, उनकी अपेक्षा तिर्यंच पर्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि तिर्यंचों के द्वारा देवों के अपहारकाल से असंख्यातगुण हीन काल के द्वारा
तर समाप्त होता है। दो सौ छप्पन सूची अंगुलों के वर्ग को आवलि के असंख्यातवें भाग से भागित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवों का अपहारकाल होता है। इस अपहारकाल का जग प्रतर में भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों का द्रव्यपरिमाण प्राप्त होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येक गुणस्थान
सामान्य तिर्यंचों के समान पल्योपम के असंख्यातवे भाग परिमाण हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवों का अपहार असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होता है। क्षेत्र की अपेक्षा तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या का अपहारकाल देवों के अपहारकाल से संख्यातगुणा हीनकाल के द्वारा जगप्रतर समाप्त होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से कर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव ओघ के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् स्त्रीलिंगी तिर्यंच जीव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा देवों के अपहारकाल की अपेक्षा संख्यातगुणा अपहारकाल से जगप्रतर समाप्त होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् तिर्यंच स्त्रीलिंगी जीव सामान्य तिर्यंच जीवों के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के द्वारा देवों के अपहारकाल से असंख्यातगुणा हीन अपहारकाल से जगप्रतर समाप्त होता है । मनुष्यगति प्रतिपन्ना मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशि जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । उस श्रेणी का आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को उसी के तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या उपलब्ध हो, उसे शलाका रूप से स्थापित करने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की जीव राशि के द्वारा समाप्त होती है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । यह सामान्य कथन है । विशेष की अपेक्षा से सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य बावन करोड़ हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों से द्विगुणित हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सात सौ करोड़
, संयतासंयत मनुष्य तेरह करोड़ हैं । कितने ही आर्चाय सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का परिमाण पचास करोड़ तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्यों का परिमाण उनसे द्विगुणित हैं, ऐसा मानते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्य सामान्यवत् अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग परिमाण है। पर्याप्त मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा करोड x करोड़ x करोड़ के ऊपर करोडx करोड़ x करोड़ x करोड़ के नीचे छः वर्गों के ऊपर और सात वर्गों के नीचे अर्थात् छठे और सातवें वर्ग के बीच की संख्या परिमाण हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पर्याप्त मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पर्याप्त मनुष्यों का परिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान ही समझना चाहिए ।
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