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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय........{98}
पुष्पदंत और भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के द्वितीय द्वार में द्रव्यपरिमाणानुगम ७६ नामक द्वितीयद्वार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों की प्ररूपणा की है।
जो पर्यायों को प्राप्त होता है, प्राप्त होगा और प्राप्त हुआ है, उसे द्रव्य कहते हैं, अथवा जिसके द्वारा पर्यायें प्राप्त की जाती हैं, प्राप्त की जायेगी और प्राप्त की गई थी, उसे द्रव्य कहते हैं। वह द्रव्य दो प्रकार का है - जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । जो पांच प्रकार के वर्ण, पांच प्रकार के रस, दो प्रकार की गंध और आठ प्रकार के स्पर्श रहित, सूक्ष्म और असंख्यात प्रदेशी है तथा जिसका आकार इन्द्रियगोचर नहीं है, वह जीव है । ये जीव का साधारण लक्षण है, क्योंकि यह दूसरे धर्मादि अमूर्त द्रव्यों में भी पाया जाता है । उर्ध्व गतिस्वभाव, भोगकर्तृत्व और स्व-पर आकाशक्त्व यह जीव का असाधारण लक्षण है, क्योंकि यह लक्षण जीव-द्रव्य को छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्य में पाया नहीं जाता है।
जिसमें चेतना गुण नहीं पाया जाता है, उसे अजीव कहते हैं। वे पांचब प्रकार के हैं - धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । अजीव के रूपी और अरुपी - ऐसे दो भेद हैं। जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श से युक्त जो पुद्गल है, वह रूपी अजीव द्रव्य हैं । रूपी अजीव द्रव्य पृथ्वी, जल आदि के भेद से छः प्रकार के हैं । अरूपी अजीव द्रव्य चार प्रकार के हैं - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य । जो जीव और पुद्गलों के गमनागमन में कारणभूत है, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं और जो स्थिरता में कारणभूत है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। ये दोनों द्रव्य अमूर्तिक और असंख्यात प्रदेशी होकर लोक के समान हैं । जो सर्वव्यापक होकर अन्य द्रव्यों को स्थान देनेवाला है, उसे आकाशद्रव्य कहते हैं । जो अपने और दूसरे द्रव्यों को परिणमन का कारण और एक प्रदेश है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही काल अणु हैं। आकाश के दो भेद हैं - लोकाकाश और अलोकाकाश। जहाँ पांच द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं और जहाँ वे पांचों द्रव्य नहीं पाए जाते हैं, उसे अलोकाकाश कहते हैं । यहाँ पर केवल जीव द्रव्य की ही विवक्षा की है, अन्य द्रव्यों की नहीं ।
जिसके द्वारा पदार्थ आते-जाते हैं या गिने जाते हैं, उसे परिमाण कहते हैं । द्रव्य का परिमाण द्रव्यपरिमाण कहा जाता हैं । वस्तु के अनुरूप ज्ञान को अनुगम कहते हैं अथवा केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा परम्परा से आये हुए अनुरूप ज्ञान को अनुगम कहते हैं। द्रव्य और परिमाण के अनुगम को द्रव्यपरिमाणानुगम कहते हैं । द्रव्यपरिमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं - ओधनिर्देश और आदेश (विशेष) निर्देश । गत्यादि मार्गणा भेदों से रहित चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों के परिमाण का निरूपण करना ओघनिर्देश है। गति और मार्गणाओं के आधार पर भेद को प्राप्त हुए चौदह गुणस्थानों का प्ररूपणा करना आदेश-निर्देश है।
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सामान्यतया मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। एक-एक के अंक को घटाते जाने पर जो संख्या कभी समाप्त नहीं होती है, उसे अनन्त कहा जाता है, अथवा जो संख्या मात्र केवलज्ञान की विषय है, उसे अनन्त कहते हैं । उस अनन्त के नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त-ये ग्यारह भेद हैं । यहाँ पर गणनानन्त की विवक्षा है। वह तीन प्रकार का है परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इसमें से भी यहाँ अनन्तानन्त अपेक्षित है । अनन्तानन्त भी तीन प्रकार का है - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । यहाँ पर मध्यम अनन्तानन्त मानना चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीव काल की दृष्टि से अनन्तानन्त उत्सर्पिणियों और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों द्वारा समाप्त नहीं होते हैं । अनन्तानन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों की राशि को तथा दूसरी ओर समस्त मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि को स्थापित करके उन समयों में से एक समय को तथा मिथ्यादृष्टियों की राशि में से एक मिथ्यादृष्टि जीव को कम करना, इस प्रकार काल के समस्त समय तो समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं होती है। अतीत काल के समयों की अपेक्षा भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि अधिक है।
क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त लोकपरिमाण हैं । लोक में जिस प्रकार प्रस्थ (एक आकार का माप) आदि के १७६ षट्खण्डागम, पृ. ५३ से ८४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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