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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{97} हैं। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक होते हैं । वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। नारकी जीवों के प्रथम चार गुणस्थान होते हैं। सातों पृथ्वी में प्रथम के चारों गुणस्थान होते हैं। नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। प्रथम नरक पृथ्वी में नारकी जीव तीनों सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। दूसरी नरक पृथ्वी से लेकर सातवीं नरक पृथ्वी तक नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि को छोड़कर शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। तिर्यंचों में प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं। यद्यपि मानुषोत्तर पर्वत तक सम्पूर्ण द्वीप समुद्रवर्ती तिर्यचों में प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं, तथापि मानुषोत्तर पर्वत से आगे तथा स्वयंभूरमणदीपस्थ स्वयंआभाचल तक असंख्यात द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न तिर्यचों को संयमासंयम गुणस्थान नहीं होता है, फिर भी वैर के सम्बन्ध से देवों या दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर वहाँ डाले गए कर्मभूमिज देशव्रती तिर्यंचों की सत्ता वहाँ सम्भव है । तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं। संयता संयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं। यद्यपि पूर्वबद्धायुष्क जीव तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं। भोगभूमि में उत्पन्न जीवों को देशसंयम की प्राप्ति नहीं होती है । इसीलिए क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यचों को पांचवाँ गुणस्थान नहीं होता है । योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, शेष दो सम्यक्त्व होते हैं क्योंकि योनिमती तिर्यंचों में न तो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति की संभावना है और न ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा की संभावना है। यह सम्भावना ढाई द्वीप और दो समुद्रों में ही जानना चाहिए, क्योंकि तिर्यंचों की तरह मानुषोत्तर पर्वत से आगे देवों के कारण से मनुष्यों के भी पहुँचने की संभावना नहीं है । मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए। देवों को प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। इसी प्रकार ऊपर-ऊपर ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक जानना चाहिए। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशानकल्पवासिनी देवियाँ-ये सब असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं, क्योंकि इन सभी देव-देवियों में दर्शनमोहनीय के क्षपण की संभावना नहीं है। दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले जीवों की उत्पत्ति इन देव-देवियों में सम्भव नहीं हैं। सौधर्म और ईशान कल्प से लेकर ऊपर-ऊपर के ग्रैवेयकविमानवासी देवों तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। नौ अनुदिशों में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध - इन पांच अनुत्तरविमानों में रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं । संज्ञीमार्गणा में जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि मनसहित होने के कारण सयोगीकेवली भी तो संज्ञी हैं, फिर उनको संज्ञी क्यों नहीं स्वीकार किया ? इसका उत्तर है कि आवरण कर्म से रहित हो जाने के कारण केवलियों को मन के अवलम्बन से अर्थ का ग्रहण नहीं होता है। असंज्ञी जीव को एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है। ___ आहारमार्गणा में आहारक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक होते हैं। यहाँ पर आहार शब्द से केवली में कवलाहार, लेपाहार, ऊष्माहार, मानसिक आहार और कर्माहार को छोड़कर मात्र नोकर्म आहार का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना अन्य आहारों की संभावना नहीं है। विग्रहगति को प्राप्त मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तथा समुद्घात प्राप्त सयोगीकेवली-इन चार गुणस्थानवी जीव तथा अयोगीकेवली और सिद्ध जीव अनाहारक होते हैं। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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