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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{96} (१) जो तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयारहित हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी, पांच इन्द्रियों के विषय में लम्पट हो, ऐसे जीव को चाहिए।
(२) जो अतिशय निद्रालु हो, दूसरों को ठगने में दक्ष हो और धन-धान्य के विषय में तीव्र लालसा रखता हो, उसे नीललेश्यावाला जानना चाहिए।
(३) जो दूसरे पर क्रोध करता है, दूसरों की निन्दा करता है, दूसरों को दुःख देता है, अत्यधिक शोक और भय से संतप्त रहता है, दूसरों का उत्कर्ष सहन नहीं करता है, दूसरों का तिरस्कार करता है तथा कार्य-अकार्य की गणना नहीं करता है, उसे कापोतलेश्यावाला जानना चाहिए।
(४) जो कार्य-अकार्य और सेव्य-असेव्य को जानता है, सब विषय में समदर्शी रहता है, दया-दान में तत्पर रहता है, मन-वचन काया से कोमल परिणामी होता है, उसे पीत अथवा तेजोलेश्यावाला जानना चाहिए।
(५) जो त्यागी है, भद्र परिणामी है, निरन्तर कार्य करने में उद्यत रहता है, कष्टों को सहन करता है, साधु तथा गुरुजनों की पूजा में रत रहता है, उसे पद्मलेश्यावाला जानना चाहिए।
) जो पक्षपात नहीं करता है, निदान नहीं बांधता है, सभी के साथ समान व्यवहार करता है, इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के विषय में राग-द्वेष रहित होता है, उसे शुक्ललेश्यावाला जानना चाहिए।
प्रथम के तीन लेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के गुणस्थान होते हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के सभी गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के गुणस्थान होते हैं। यहाँ संशय होता है कि जो जीव कषाय से रहित हो चुके हैं, उनके शुक्ललेश्या कैसे सम्भव है ? कहा गया है कि जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है, उनमें कर्म लेप का कारणभूत योग पाया जाता है, इस अपेक्षा से शुक्ललेश्या का सद्भाव माना जाता है। तेरहवें गुणस्थान से आगे सभी जीव लेश्या रहित हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारणभूत योग और कषाय दोनों का ही अभाव है।
भव्यमार्गणा में जिन जीवों में अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि को प्राप्त करने की योग्यता है, उसे भव्य कहते हैं और जिन जीवों में अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि की योग्यता नहीं है, उसे अभव्य कहते हैं । भव्य जीवों को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान होते हैं । अभव्य जीवों को मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है ।
सम्यक्त्वमार्गणा में जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थों में आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व जिस में पाया जाता है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। दर्शनमोह का सर्वथा क्षय हो जाने से जो निर्मल तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व और जिसमें क्षायिक सम्यक्त्व होता है, उसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से जो चल, मलिन और अगाढ़ श्रद्धान होता है, उसे वेदक सम्यक्त्व अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं और जिसमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अर्थात वेदक सम्यक्त्व होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि कहते हैं। जिस प्रकार मलिन जल में निर्मली फल के डालने से कीचड़ नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोहनीय के उपशम से जो निर्मल तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे उपशमसम्यक्त्व और जिसमें उपशमसम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिला हुआ तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्मिथ्यासम्यक्त्व और उससे युक्त जीव को सम्यग्मिध्यादृष्टि कहते हैं। उपशम सम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छः आवलि परिमाण काल के शेष रहने पर किसी एक अनन्तानुबन्धी का उदय आ जाने से जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो चुका हो और जो मिथ्यात्व अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं और ऐसे जीव को सास्वादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं । मिथ्यात्व के उदय से जिन जीवों का तत्वार्थश्रद्धान विपरीत हो उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते
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