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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय........{95} को भवप्रत्यय होता है। यह विभंगज्ञान पर्याप्त जीवों को होता है और अपर्याप्तों को नहीं होता है। अपर्याप्त अवस्थावाला देव और नारक विमंगज्ञान का स्वामी नहीं है, किन्तु पर्याप्त अवस्थावाला देव और नारक, विभंगज्ञान का स्वामी है। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञानवाले जीवों को मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होते हैं। अज्ञान के विवेचन के पश्चात् ज्ञान की विवेचना करते हैं। आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवाले जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। मनःपर्यवज्ञानवाले जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। केवलज्ञानवाले जीव सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन गुणस्थानों में ही होते हैं। संयममार्गणा में सर्वप्रथम संयत के अर्थ का निरवचन करते हैं । सं अर्थात् समीचीन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ 'यत्' अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर आसवों से विरत हैं, उन्हें संयत कहते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा समस्त सावद्ययोग के त्याग का नाम सामायिकशुद्धिसंयम है। एक ही व्रत को दो, तीन आदि भेद से धारण करना, उसे छेदोपस्थापना संयत कहते हैं। यह संयम पर्यायार्थिक नय की अपेक्षावाला है । जिनको हिंसा का परिहार प्रघान है, ऐसे शुद्धि प्राप्त संयम को परिहारशुद्धिसंयत कहते हैं। सम्पराय अर्थात् कषाय, जिनकी कषाय सूक्ष्म हो गई है, ऐसे शुद्धि प्राप्त संयत को सूक्ष्मसम्परायशुद्धिसंयत कहते हैं। जिनके परमागम में प्रतिपादित विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान प्राप्त करने वाले संयत को यथाख्यात परिहारविशुद्धिसंयत कहते हैं। जो पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को ग्रहण कर कर्मनिर्जरा करते हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत कहलाते हैं। उनके दार्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, पोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुधिविरत, बह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उदिष्टविरत-ये ग्यारह भेद हैं। जो जीव छः काय के जीवों की हिंसा एवं इन्द्रिय के विषयों में विरत नहीं होते हैं, उन्हें असंयत कहते हैं। संयत जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीयशुद्धि संयत जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। परिहारशुद्धि संयत जीव प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे धानों में ही होते हैं। सूक्ष्मसंपरायिकशुद्धिसंयत जीव मात्र सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होते हैं । यथाख्यातपरिहारविशुद्धिसंयत जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन चार गुणस्थानों में होते हैं । संयतासंयत जीव संयतासंयत गुणस्थान में ही होते हैं। असंयत जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । जिसके द्वारा देखा जाता है, वह दर्शन कहलाता है अथवा ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उससे सम्बद्ध आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। वह चार प्रकार का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवघिदर्शन और केवलदर्शन। चाक्षुष ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मसंवेदन को चक्षुदर्शन कहते हैं। चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों और मन से होनेवाले दर्शन को अचक्षदर्शन कहते हैं । __ अवधिज्ञान के पूर्व होनेवाले दर्शन को अवधिदर्शन कहते हैं। प्रतिपक्ष से रहित जो दर्शन होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं। चक्षुदर्शनवाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। अचक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शनवाले जीव को असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शनवाले जीव सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन दो गुणस्थानों में और सिद्धस्थान में होते हैं । लेश्या अर्थात् कषाय से अनुरंजित जो योगों की प्रवृत्ति होती है, उसे लेश्या कहते हैं। “कर्मस्कन्धैः आत्मानं लिम्पति” इति लेश्या। कषाय का उदय छः प्रकार का होता है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । इन छः प्रकार के कषायों से उत्पन्न हुई लेश्या भी छः प्रकार की है-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इन लेश्याओं से युक्त जीवों की पहचान निम्न प्रकार से होती है - Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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