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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{94} के अनुसार जो दोषों से स्वयं को और दूसरे को आच्छादित करती है, उसे स्त्री कहते हैं। स्त्री की काम वासना को स्त्रीवेद कहते हैं अथवा जो पुरुष की इच्छा करती है, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। वेद का अर्थ अनुभवन होता है। ऐसे जो जीव अपने को स्त्रीरूप अनुभव करते हैं, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। 'पुरुगुणेषु पुरूभोगेषु च शेते इति पुरुषः', इस प्रकार जो पुरू (उत्कृष्ट) गुणों में और भोगों में शयन करता है, उसे पुरुष कहते है अथवा जो स्त्री की इच्छा करता है, उसे पुरुष कहते हैं । उसका अनुभव करने वाले जीव को पुरुषवेदी कहते हैं। जो न स्त्री है, न पुरुष है, उसे नपुंसक कहते हैं, अथवा स्त्री और पुरुष दोनों की इच्छा करने वाले को और उसका अनुभव करने वाले जीव को नपुंसकवेदी कहते है। जिन जीवों को तीनों प्रकार से होने वाला संताप दूर हो गया है, वे अपगतवेदी कहलाते हैं। सामान्यतया स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। नपुंसक वेद वाले जीव भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग के अन्त में पुरुषवेद का विच्छेद हो जाने से आगे वेद का अभाव बतलाया है। यहाँ भाववेद ही समझना चाहिए, द्रव्य वेद नहीं, किन्तु यह मन्तव्य केवल धवला टीकाकार का है, मूल ग्रन्थकार का नहीं।
मार्गणा में वेदों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि नारकी जीवों में चारों गुणस्थानों में नपुंसकवेदी होते हैं। तिर्यंच में एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव नपुंसकवेदी होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक तीनों वेदवाले होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग में तथा आगे के सभी गुणस्थानों में वेद से रहित मनुष्य होते हैं । देवगति में चार गुणस्थान ही होते हैं । सौधर्म, ईशान देवलोक तक के देव स्त्री और पुरुष दोनों वेदवाले होते हैं। सनत्कुमार से ऊपर के सभी देव पुरुषवेदी ही होते हैं, क्योंकि इन देवलोकों में देवियाँ नहीं होती हैं। ___ कषाय मार्गणा में क्रोध कषाय वाले, मान कषाय वाले और माया कषाय वाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । लोभ कषाय वाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होते हैं। कषायरहित जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीण कषाय वीरागछद्मस्थ, सयोगी केवली और अयोगीकेवली - इन चार गुणस्थानों में होते हैं।
ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञान वाले, श्रुत-अज्ञान वाले, विभंगज्ञान वाले, आभिनिबोधिक ज्ञान वाले, श्रुतज्ञान वाले, अवधिज्ञान वाले, मनः पर्यवज्ञानवाले और केवलज्ञानवाले जीव होते हैं। जो जानता है, उसे ज्ञान कहते है। जिसके द्वारा आत्मा जानती है, जानती थी और जानेगी, ऐसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अथवा सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न हुए आत्मपरिणाम को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान दो प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। इनमें परोक्ष के दो भेद हैं - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं - अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान। विष, यन्त्र, कूट, पंजर आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे मति-अज्ञान कहते हैं। चौरशास्त्र
और हिंसाशास्त्र आदि के अयोग्य उपदेशों को श्रुत-अज्ञान कहते हैं । मिथ्यादृष्टि को जो विपरीत अवधिज्ञान होता है, उसे विभंगज्ञान कहते हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थ का जो अवबोध होता है, उसे आभिनिबोधिकज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान से जाने हुए विषय के सम्बन्ध से जो दूसरे विषयों का ज्ञान होता है, उसको श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य-इस प्रकार दो भेद बताये गए हैं। उनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस ज्ञान के विषय की अवधि (सीमा) हो, उसे अवधि ज्ञान कहते हैं। इसे परमागम में 'सीमाज्ञान' भी कहते हैं। इसके भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय-ऐसे दो भेद हैं । दूसरे मन में स्थित विषयों को जो जानता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र के भीतर संयत जीवों को ही होता है। जो तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं।
मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं। · विभंगज्ञान, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को होता है। विभंगज्ञान, देव और नारकी
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