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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
पंचम अध्याय........{393} प्राप्त लोभकषाय से युक्त जीव सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती होता है ।३६० सम्पराय अर्थात् यथाख्यात चारित्र को रोकने वाला लोभकषाय सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मदृष्टि अनुभागोदय से सहचरित राग। जो सूक्ष्मराग से युक्त है वह सूक्ष्मसम्पराय है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम समय के पश्चात् सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान को प्राप्त करके सूक्ष्म दृष्टि को प्राप्त लोभ के उदय को भोगनेवाला उपशमक अथवा क्षपक जीव सूक्ष्मसम्पराय कहा जाता है । जिसका सम्पराय अर्थात् लोभकषाय सूक्ष्म है, अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि को प्राप्त है, वह सूक्ष्मसम्पराय है।
__ जैसे कतकफल के चूर्ण से युक्त जल निर्मल होता है अथवा मेघपटल से रहित शरद ऋतु में जैसे सरोवर का जल ऊपर से निर्मल होता है, वैसे ही पूरी तरह से मोह को उपशान्त करने वाला उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती कहा जाता है । जिसने कषायों और नोकषायों को उपशान्त अर्थात पूरी तरह से उदय के अयोग्य कर दिया है, वह उपशान्तकषायवाला है।३६१ उपशान्त कषाय गणस्थानवी जीव यथाख्यात चारित्र से यक्त होने से निर्ग्रन्थ कहा जाता है।
जिसकी मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ निःशेष क्षीण अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश से रहित हो गई है, वह निःशेष क्षीणमोह अर्थात् मोहनीय की सभी कर्मप्रकृतियों से रहित जीव क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा जाता है ।२६२ क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव स्फटिक के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान होता है । ऐसा बारहवाँ गुणस्थानवी जीव छद्मस्थ वीतराग कहा जाता है । वह परम निर्ग्रन्थ होता है।
जिन्होंने केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से प्रकाशित होकर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा शिष्यजनों का अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया है, ऐसे सयोगी केवली भगवान भव्य जीवों का उपकार करने में समर्थ हैं । उन्होंने क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-इन नौ केवल लब्धियों को प्रकटकर परमात्मा नाम को प्राप्त किया है । वे भगवान अर्हन्त परमेष्ठी अनन्तज्ञानादि से युक्त हैं । योग से युक्त होने से सयोग और असहाय ज्ञान-दर्शन से सहित होने से केवली अर्थात् सयोगी केवली हैं । वे घाती कर्मों को निर्मूल करने से जिन है । इस प्रकार उन्हें सयोग केवली जिन कहा है।३६३ ये सयोग केवली जिन तेरहवें गुणस्थान के धारक हैं।
__जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, समस्त आनवों के रुक जाने से जो नवीन बध्यमान कर्मरज से सर्वथा रहित है तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग से रहित होने से अयोग हैं, इसी प्रकार जिनके योग नहीं है तथा केवली भी हैं, वे अयोग केवली भगवान हैं । यह अयोग केवली जिन रूप चौदहवाँ गुणस्थान है।३६४ ____ गुणस्थानों के इस स्वरूप विश्लेषण में गोम्मटसार की विशेषता यह है कि सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की चर्चा में वह वेदक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप की भी चर्चा करता है । इसी प्रकार प्रमत्तसंयत गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में पन्द्रह प्रकार के प्रमादों और इनके विकल्पों तथा उनके क्षय करने की विधि आदि का उसमें विस्तार से उल्लेख किया गया है । इसी क्रम में अप्रमत्तंसयत गुणस्थान की चर्चा करते हुए उसमें अधःप्रवृत्तकरण आदि की भी अति विस्तार से चर्चा की गई है । अपूर्वकरण गुणस्थान में अंक संदृष्टि और अर्थ संदृष्टि का विवेचन हुआ है । साथ ही अयोगी केवली गुणस्थान के पश्चात् चौदह गुणस्थानों में होने वाली गुणश्रेणी निर्जरा का भी विस्तृत विवेचन किया गया है और अन्त में सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए उनके लक्षणों का भी विवेचन किया गया है । अन्त में कहा गया है कि सिद्ध परमात्मा के उपर्युक्त लक्षण सदा शिवमत, सांख्यमत, मस्करीमत, बौद्धमत, नैयायिक मत, ईश्वरवादी मत और माण्डलिक मत के दोषों के निराकरण
३६० गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५८, पृष्ठ १२१ वही। ३६१ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.६१, पृष्ठ १२६ वहीं। ३६२ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र. ६२, पृष्ठ १२७ वहीं । ३६३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.६३-६४, पृष्ठ १२८ वहीं । ३६४ वहीं गाथा क्र. ६५, पृष्ठ १२६ ।
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