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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
पंचम अध्याय........{394) के लिए बताए गए है । इस प्रकार हम देखते है कि गुणस्थान के स्वरूप को लेकर जितना विस्तृत विवेचन गोम्मटसार में पाया जाता है, उतना विस्तृत विवेचन अन्यत्र नहीं है । गोम्मटसार लगभग ६० गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करता है। मूल ग्रन्थ की अपेक्षा भी इसकी टीका कर्णाट वृत्ति में इस सम्बन्ध में अधिक विस्तृत चर्चा मिलती है । गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन हम प्रथम अध्याय में कर चुके हैं, अतः पुनरावृत्ति विस्तार भय से यहाँ पुनः उनका विस्तृत विवेचन करना उचित नहीं होगा। ___ गोम्मटसार में जीवकाण्ड में बीस प्ररूपणाओं में गुणस्थान प्ररूपणा को प्रथम स्थान दिया गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना के प्रति अत्याधिक जागरूक रहे हैं । गुणस्थान प्ररूपणा के पश्चात् जीवकाण्ड में जीवसमास प्ररूपणा, पर्याप्ति प्ररूपणा, प्राण प्ररूपणा, संज्ञा प्ररूपणा, गति मार्गणा अधिकार, इन्द्रिय मार्गणा अधिकार, काय मार्गणा अधिकार, योग मार्गणा अधिकार, वेद मार्गणा अधिकार, कषाय मार्गणा अधिकार, ज्ञान मार्गणा अधिकार, संयम मार्गणा अधिकार, दर्शन मार्गणा अधिकार, लेश्या मार्गणा अधिकार, भव्य मार्गणा अधिकार, सम्यक्त्व मार्गणा अधिकार, संज्ञी मार्गणा अधिकार, आहार मार्गणा अधिकार, उपयोग मार्गणा अधिकार - ऐसे १६ अधिकार हैं । इनमें पर्याप्ति प्ररूपणा अधिकार में लब्धि पर्याप्तक जीवों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है तथा यह बताया गया है कि अपर्याप्त काल में सास्वादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होते हैं ।३६५ इसी प्रकार योग मार्गणा में सयोगी केवली गुणस्थान का कुछ विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।२६६ ज्ञान मार्गणा में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के स्वरूप का कुछ विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।२६७ लेश्या मार्गणा में गुणस्थानों में लेश्याओं का अवतरण किया गया है ।३६८ इसी प्रकार सम्यक्त्व मार्गणा में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या कितनी होती है, इसका उल्लेख उपलब्ध होता है।३६६ इसी सम्यक्त्व मार्गणा में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के स्वरूप का भी उल्लेख मिलता है।३७० इस प्रकार गोम्मटसार के जीवकाण्ड के बीस प्ररूपणा अधिकारों में प्रथम गुणस्थान प्ररूपणा अधिकार में ही गुणस्थानों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है । शेष प्ररूपणाओं में यथाप्रसंग ही गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । इन प्ररूपणाओं में जो गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध है, वह पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के समरूप ही है, अतः उस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं है।
गुणस्थान प्ररूपणा अधिकार के पश्चात् जीवकाण्ड में गुणस्थान सम्बन्धी जो विशेष चर्चा उपलब्ध होती है, वह उसके ओघ-आदेश प्ररूपणा अधिकार और आलाप अधिकार में है। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इन दोनों अधिकारों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा किस रूप में है । गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा :
आचार्य नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसार दो खण्डों में विभाजित है-जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। पूर्व में हमने इस ग्रन्थ के जीवकाण्ड में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में प्रस्तुत है, इस पर विचार किया । अब हम गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में विवेचित है, इसकी चर्चा करेंगे । गोम्मटसार का कर्मकाण्ड मुख्य रूप से विभिन्न कर्मप्रकृतियों और उनके फल विपाक को लेकर चर्चा करता है । इसके आठ विभाग हैं - (१) प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार (२) बन्धोदयसत्वाधिकार
३६५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, अधिकार ३, गाथा क्र. १२८, पृष्ठ २६२ वही । ३६६ वही, ६ वाँ अधिकार, गाथा क्र २२८, २२६, पृष्ठ ३६५ से ३६७ । ३६७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, १२ वाँ अधिकार, गाथा क्र. ३०२ वही । ३६८ वही, १५ वाँ अधिकार, गाथा क्र. ५३०-५३६ । ३६६ वही, गाथा क्र. ६२२-६३३ । ३७० वही, गाथा क्र. ६४५, ६५५, ६५६ ।
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