SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{392} जिस काल में संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों का और हास्यादि नौ नोकषायों के उदयरूप परिणाम मन्द हों, अर्थात् प्रमाद को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित होता है, उक्त काल में एक अन्तर्मुहूर्त के लिए जीव को होनेवाला गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है ।३५६ अप्रमत्तसंयत के दो भेद हैं -स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । जिस जीव के प्रमाद नष्ट हो गए हैं, जो व्रत, गुण एवं शील से भूषित है, जो सम्यग्ज्ञान के उपयोग से युक्त है तथा जिसका मन धर्मध्यान में लीन है. ऐसा अप्रमत्तसंयत जब तक उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी के सन्मुख चढ़ने के लिए प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसे स्वस्थानाप्रमत्त कहते हैं । जिसकी विशुद्धि अर्थात् कषायों की मन्दता प्रतिसमय अनन्तगुना वृद्धिगत है अर्थात् प्रथम समय की विशुद्धता से दूसरे समय की विशुद्धता अनन्तगुना है, उससे तीसरे समय की विशद्धता अनन्तगना हो. इसीप्रकार प्रतिसमय जिसकी विशुद्धता बढ़ती हो, वह वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव पहले अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण पूर्वक संक्रमण के द्वारा बारह कषाय और नौ नोकषाय में परिणमाता है । इसी का नाम विसंयोजन है । इसके पश्चात अन्तर्महर्त तक विश्राम करके पनः तीन करणों के द्वारा दर्शनमोह की तीन प्रकतियों का उपशम करके द्वितीय उपशम सम्यग्दृष्टि होता है अथवा उन तीन करणों के द्वारा दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार आता-जाता है अर्थात् अप्रमत्त से प्रमत्त और प्रमत्त से अप्रमत्त होता है । तत्पश्चात् प्रतिसमय अनन्तगुना विशुद्धि से बढ़ता हुआ चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिए तत्पर होता है । औपशमिक सम्यग्दृष्टि, उपशम और क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षय करता है। ज्ञातव्य है कि उपशमश्रेणी पर आरोहण, उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों ही कर सकते है, किन्तु क्षपकश्रेणी पर आरोहण क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है। चारित्रमोह के उपशम और क्षय करने वाला सातिशय अप्रमत्त कहलाता है। __अन्तर्मुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तकरण करके विशुद्ध संयमी होकर प्रतिसमय अनन्तगुना विशुद्धि से वर्धमान होता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त होता है ।३५७ जिसके द्वारा उत्तरोत्तर समयों में स्थित जीवों के, जो पूर्व-पूर्व समयों में नहीं प्राप्त हुए, ऐसे विशुद्ध किन्तु विसदृश परिणाम प्राप्त होते है, उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । जिस गुणस्थान में जीवों के परिणाम अपूर्व होते है, उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव जब उपशमश्रेणी पर आरोहण करता है, तब चारित्र मोहनीय का नियम से उपशम करता है तथा जब क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है, तब चारित्र मोहनीय का नियम से क्षय करता है । क्षपकश्रेणी में नियम से मरण नहीं होता है, किन्तु उपशमश्रेणी में अपूर्वकरण के प्रथम भाग को छोड़कर द्वितीयादि भागों में मरण सम्भव होता है। ____ अनिवृत्तिकरण काल के एक समय में वर्तमान सभी जीवों के, जैसे शरीर के आकार, वर्ण, वय, अवगाहना, ज्ञानोपयोग आदि में परस्पर भेद होते है, उसी प्रकार विशुद्ध परिणामों में परस्पर भेद नहीं होते है । जिसमें निवृत्ति अर्थात् विशुद्ध परिणामों में भेद नहीं है, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है ।३५८ अनिवृत्तिकरण में एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता होती है तथा आगे के प्रति समय में अनन्तगुना विशुद्धता बढ़ती जाती है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीव विमलतर ध्यानरूपी अग्नि की ज्वाला से कर्म रूपी व्रत को जलानेवाले होते हैं । तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीवों के परिणामों का कार्य चारित्रमोहनीय का उपशमन या क्षपण करना है ।३५६ जैसे कुसुम्भ से रंगा हुआ वस्त्र सम्यक् रूप से धोने पर भी सूक्ष्म लाल रंग से युक्त होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म दृष्टि को ३५६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ४५, पृष्ठ ७८ लेखक : आ. नेमिचन्द्र, सम्पादन : डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, १८, इंस्टीट्युशनल एरिया, लोदी रोड़, नई दिल्ली - ११०००३ ३५७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५०, पृष्ठ ११२ वही। ३५५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५६, पृष्ठ ११६ वही। ३५६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र. ५७, पृष्ठ १२० वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy